निर्मल-बाशो-अर्थ
मरते वक्त IVAN TURGENEVE ने, लेखन से सन्यास ले चुके अपने मित्र तोल्स्तोय को ख़त में क्यों लिखा की "कहानियों की ओर वापस लौटों मित्र, लेखन की और वापस लौटो"
सत्रहवीं सदी का जापान, एडो पिरीयड के महान हाइकु मास्टर लिखते हैं
Furuike ya
kawazu tobikomu
mizu no oto
-- Basho
अंग्रेज़ी में कई लेखकों ने इसका translation किया, इसी हाइकु को जब Allan Watts translate करते हैं तो लिखते हैं
The old pond,
A frog jumps in:
Plop!
Harry Behn का translation कहता है
An old silent pond...
A frog jumps into the pond,
splash! Silence again.
तालाब, पुराना चुप पानी
मेंढक! फ़चाक!
फ़िर सब चुप
उस शांत तालाब में कहाँ बैठा था मेंढक! हर बार पानी में लौटने के पहले उसके मन में ऐसा क्या आता है की उसे लगता है अब लौट जाना चाहिए, क्या उसे कुछ दिखता है, कोई कीड़ा, पानी में चमकती कोई वस्तु या बस वो ऐसे ही कूद जाता है क्योंकि वो मेंढक है, तालाब शांत था! तालाब हमेशा शांत ही होते हैं, परेशान नहीं लगते। मेंढक के कूदने के बाद पानी ज़रा देर को बोला फिर चुप हो गया, जैसे नींद से उठकर फिर नींद में चला गया ।
जितनी बार पढ़ता हुँ उतनी बार तालाब का पानी चुप है, उतनी बार मेंढक कूदता है, उतनी ही बार पानी पे आहिस्ते से दूर जाकर ग़ायब हो जाती हैं पानी की अँगूठियाँ, तालाब के नक़्शे में कहीं सीढ़ियाँ है, उन पर काई जमी है। बेलाएँ अनियंत्रित हैं, हर दिशा में फ़ैली हैं। पक्षियों की आवाज़ें नहीं है पर वे इर्द गिर्द हैं, इसका आभास है।
दोपहर है, शाम है और नीली भोर, सारे समय मिले हुए हैं
ये सब अचानक हुआ, कुछ सेकंड्ज़ के अंतराल में
या ये भी सम्भव है की
पूरी रात से तालाब का पानी शांत है, भोर के नीले में मेंढक कूदता है, दोपहर भर पानी की अँगूठियाँ फैलते ही रहती हैं और शाम से फिर रात की राह देखता पानी शांत है
मैं हर बार देखते रह जाता हुँ इस तालाब को जो कभी-कभी बहुत आदिम प्रतीत होता है। फिर वो ALLAN WATTS का लिखा “plop!” हो या HERRY BEHN का लिखा स्प्लैश! या मेरा पकाया हुआ फ़चाक!
पढ़ने में जितना मिलता है, उससे कुछ बहुत अधिक बचा रह जाता है पढ़ लेने के बाद भी।
इतनी छोटी सी तीन पंक्तियों के ख़त्म होने के बाद भी मेंढक के पानी में कूदने की आवाज़ गूंजते रहती है, पानी और सीढ़ियों पे जमी काई महकती रहती है और मैं कहीं भी रहूँ, खुद को तालाब किनारे खड़ा पाता हूँ, लगता है आपके निजी समय-बोध को किसी ने चैलेंज कर दिया हो, एक ऐसा पोर्टल सामने खुल जाता है जिसके भीतर ना जाने या बाहर रुके रहने का अधिकार आपके पास नहीं होता, आपको वहाँ जाना ही पड़ेगा।
देखने वाले, लिखने वाले एक अजीब सी अथॉरिटी के साथ आपकी sensitivity को shape देते हैं, वे जहां भी आपको बुलाते हैं आप जाते हैं। उसके बाद वे ऐसी दुनिया के दरवाज़े खोलते हैं जो हो सकता है की बहुत कुछ हमारी दुनिया जैसी ही लगे जहां सड़कें, इमारतें, लोग, रेस्टौरेंट सब कुछ वैसा ही हो, जहां फ़िज़िक्स के सिद्धांत वैसी ही काम करते हैं जैसे हमारी दुनिया में
या ठीक उलट,
कोई फ़ैंटैस्टिक दुनिया जहां जंगल खुद दिशाएँ बदल देते हैं, जहां उड़ना सम्भव है, जहां दानवों की सभाएँ होती हैं
दुनिया कोई भी, कैसी भी हो आप को बुलाया जाता है तो आप जाते हैं।
विविध कलाओं का रहस्य उनके dual nature में है, रीऐलिटी से वास्ता रखने के बाद भी उनके निजी संसार रियल नहीं हैं।
महान लेखक और विचारक निर्मल वर्मा अपने निबंध “रचना की ज़रूरत” में लिखते हैं
“वह सितम्बर की एक शाम थी, मैं सड़क पार कर रहा था ।”
इसमें कोई नयी और अजीब बात नहीं है। हमने अपनी ज़िंदगी में सितम्बर की अनेक शामें देखी हैं और सैकड़ों सड़कें पार की हैं, फिर भी इस वाक्य को पढ़ते हुए हम यक-ब-यक चौंक पड़ते हैं, जिस तरह जैसे अतीत के सारे अधूरे, उलझे और गड्ड-मड्ड प्रभाव एक नुकीले बिंदु पर आकर जमा हो गए हों और वो स्मृति है। हम जो अनुभव करते हैं वो जाना पहचाना होते हुए भी इस वाक्य में वह नहीं है । इसमें एक समयहीन गुण है, एक अनुभव जो शब्दों कि जड़ों और वक्त की परतों से अपनी ज़िंदगी का सोता आप ही पैदा करता है और जीवित रहता है। इस तरह कला की दुनिया विचित्र होती है।मानवीय चेतना से जन्म लेकर यह मानवीय खाके ही उतार फेंकना चाहती है, समय के पदचिन्हों को नष्ट करती है, और ज़िंदगी की एक ऐसी लय ग्रहण करती है जो इसकी अपनी है।जैसे ही आप कहानी उठाते हैं या किसी चित्र की ओर देखते हैं, सहसा पिघल कर ये फिर बहने लगती है।
यह हमारी रोज़मर्रा की दुनिया से मिलती -जुलती हुई भी हू-ब-हू बिल्कूल वैसी नहीं होती ।यह सपने की तरह होती है और सपने के दुनिया, बावजूद इसके की उसमें हमारी चेतन ज़िंदगी के अंश होते हैं, जीती-जागती दुनिया से अलग होती है।”
“कहानी की सितम्बर वाली शामें कभी ख़त्म ना होगी और सड़कें पार करता हुआ आदमी अनंतकाल तक चलता रहेगा”
“Anna Karenina” लिखने के बाद जब तोल्स्तोय ने लेखन से सन्यास ले लिया तो इवान तुर्गनेव ने उन्हें अपनी मृत्यु शय्या (Death bed) पर पड़े पड़े एक ख़त लिखा जिसमें उन्होंने तोल्स्तोय से गुहार लगायी
“लेखन की ओर लौटो दोस्त, कहानियों की ओर लौटो”
तोल्स्तोय ने उसके बाद फिर लिखना शुरू किया।
आज ये बात थोड़ी अजीब लगती है की एक मरता हुआ लेखक दूसरे लेखक से मिन्नत कर रहा है कि उपन्यास लिखना बंद नहीं होना चाहिए।
ये बेलिंसकी और गोगोल का वो समय है जब कहनियाँ कहना एक दहशत पैदा करने वाला काम था, एक हद तक पवित्र और अभिजात कर्म। जेल भेज दिया जाना लेखकों के लिए सम्मान की बात थी। वे सभी अपनी कहानियों से मनुष्यता की मायने स्थापित कर समाज को हिला डालते थे।
निर्मल वर्मा आगे लिखते हैं
“दरअस्ल कला मनुष्य के उन स्मृति खंडों को नष्ट होने से बचाती है जिन्हें इतिहास भविष्य के ज़ोम में जाकर कूड़ेदानी में फेंक देता है - वे स्मृतियाँ जो अतीत को समेटने या हमारे जीने में सहायक होती हैं और जिनके बग़ैर हम अपने आप से अजनबी बने रहते हैं”
हम सभी जब अपना जिया हुआ किसी को बताते हैं तो हमेशा उसे एक फ़्रेम में रख कर बताते हैं, जिसके शुरू होने और अंत होने की सीमाएँ होती है, और अनुभवों को फ़्रेम में रखते ही वो उस फ़्रेम से बहुत बड़े हो जाते हैं।अर्थ शब्दों, ध्वनियों और दृश्यों के माध्यम को पार कर कहीं किसी और दुनिया में चले जाते हैं, एक टेम्परेरी यथार्थ रचते हैं ।
“ना तो कहानियों को रोटी में बदला में जा सकता है, और ना ही वे बुराइयों के विरुद्ध हथियार का काम दे सकती हैं, पर वे उस रोशनी में तब्दील हो सकती हैं जो हमें धुंधले शीशे के आर पार देखने में हमारी मदद करे, सिर्फ़ अंधेरे का चरित्र ही नहीं पर अपनी भूख की गहराई भी।”
अंत में अज्ञेय की एक कविता
उड़ गयी चिड़िया
काँपी, फ़िर
थिर
हो गयी पत्ती।
(नई दिल्ली, 1958)
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बहुत ही शानदार 👍🏻👌
अच्छा लेखन