"शब्द, समय और बस स्टैंड पर खड़ा एक साधारण आदमी"
प्रकाश-वर्ष
गर्मियों में जब घर के सभी लोग दोपहर का भोजन करके ऊँघने लगते थे, हम बच्चे चुपके से छत की ओर भाग आते थे। उस दिन छत पर तीन बरनियाँ रखी हुयी थी, तीनों में क्रमशः कटहल, नींबू और आम के आचार पक रहे थे, इत्मिनान से बरनियाँ खोली और आम की एक फाँक मुँह में दबा ली।
पड़ोस की छत पर देखा तो प्रफ़ेसर साहब हमें ही देखते खड़े थे, हम सब चुप चाप उन्हें देखते रहे । फिर उन्होंने धीरे से कहा “थोड़ा नींबू का अचार चखाओगे?”
प्रफ़ेसर साहब का नाम किसी को भी नहीं पता था, शायद वो खुद भी भूल गए थे, वो किसी कॉलेज में प्रफ़ेसर नहीं थे, उन्होंने तो कभी नौकरी की ही नहीं, सारा दिन घर पर किताब पड़ते रहते थे इसलिए उनका नाम प्रफ़ेसर साहब पड़ गया
पर उस दिन उन्होंने एक कमाल की बात कह दी, उन्होंने बताया कि
“इस आचार में बाक़ी सब तो ठीक है पर सूरज का प्रकाश थोड़ा ज़्यादा हो गया है” हम बच्चों ने एक दूसरे की ओर देखा फ़िर अचार चखा।
“ चार बिल्यन साल पहले जन्मे तारे से निकला प्रकाश इस रेसिपी का अभिन्न हिस्सा है”
प्रफ़ेसर साहब यहीं नहीं रुके -
“और जिन तारों को हम रात में देख़ते हैं उनमें से बहुत से तारे अपनी ही ग्रैविटी में कोलैप्स हो कर मर चुके हैं पर वो हमसे इतनी दूर थे की उनका प्रकाश हम तक अब पहुँच पा रहा है । प्रकाश अपनी एक वर्ष की यात्रा में जितनी दूरी पूरी कर पाता है उसे प्रकाश वर्ष कहते हैं, सुनने में लगता है कि ये समय की मापक इकायी है पर सोचने में समझ आता है कि “प्रकाश-वर्ष" दूरी नापने की इकायी है।
“प्रकाश वर्ष”- हम सब बुदबुदाए फिर चमकते हुए सूरज की ओर देखने लगे और एक आँखों में तेज़ उजाला छा गया ।
क़िले के भीतर दोस्त ने मुझे सौंपे कुछ शब्द -
सालों बाद ऐसा ही विस्मय मुझे फिर हुआ -
जोधपुर के मेहरान गढ़ क़िले की सुंदरता और कठोरता से अभिभूत हो कर मैं और मेरा एक मित्र, क़िले के चौकिदारों से आँख बचाकर पीछे के रास्ते से परकोटे के भीतर बने हज़ारों नीले घरों के भ्रमण पर जा रहे थे, अचानक तेज बारिश शुरू हो गयी। मैं और मेरा मित्र दौड़ पड़े और ढलान पर मौजूद क़िले के ही एक एक्सटेंडेड स्ट्रक्चर के नीचे रुक गए, दूर-दूर तक कोई भी नहीं दिखता था।
दुर्ग के आगे वाले हिस्से में रावणहत्ता बजाने वाला एक लड़का अद्भुत धुन छेड़ रहा था, पैरों के नीचे से क़िले की गर्म फ़र्श को ठंडा करता हुआ बारिश का पानी बह रहा था, पुराने पत्थरों की महक थी और कबूतरों की गुटर- गूं । हम दोनो मित्र चुप चाप बैठे रहे और इस ऐतिहासिक क़िले के भीतर सुनते रहे रावणहत्थे की धुन को….
जब क़िले के सामने वाले हिस्से से गुजर रहे थे तो उसी संगीतकार ने बताया था की सीता-हरण के समय जब रावण मुनि-वेश धर के इसी वाद्य यंत्र को बजाते हुए पंचवटी आया था, हत्थे के तंतु टूट जाने के बाद रावण ने अपने हाथों की नसों को काटकर हत्थे में लगाया और उसके बाद ही यह यंत्र बज पाया था -तब से इस वाद्य -यंत्र का नाम रावनहत्था पड़ गया।
उसी समय, उसी ऐतिहासिक एकांत में मुझे उस मित्र ने दो नए और शब्द भेंट किए
पहला उसने टूटे हुए हिस्से से एक पत्थर उठाया और कहा “ध्वंसावशेष”। अचानक इस शब्द के भार ने मेरे सामने, परमाणु हमले के बाद बचे हुए हिरोशिमा की छवी लाकर रख दी।
ध्वंसावशेष का अर्थ है विध्वंस के बाद बचे हुए अवशेष।
मै इस से संभला भी नहीं था की उसने अंधेरे की ओर घूरते हुए दूसरा शब्द मेरी हथेलियों में रख दिया “असूर्यमपश्या”
इसे सुनते ही छवी से ज़्यादा किसी वज़नी भाव ने मुझे जकड़ लिया। असूर्यमपश्या मतलब ऐसी औरतें जिन्होंने कभी सूर्य को नहीं देखा हो।
बारिश के रुकते ही हम वहाँ से आगे बढ़े और रास्ते भर मैं इन शब्दों को टटोलते हुए सोचता रहा कि कैसे कुछ शब्दों का सार समय से बंधा है
प्रकाश-वर्ष, ध्वंसावशेष, असूर्यमपश्या और रावणहत्था जैसे शब्दों में छिपे विज्ञान, इतिहास, त्रासदी, लोक-कथा, धर्म , संगीत और ना जाने कितने ही घटनाक्रमों ने हमारे आज का निर्माण किया है।
कविता और समय
बोली हुयी भाषा का समय के साथ प्रत्यक्ष सम्बंध है, एक कहा हुआ वाक्य निर्धारित समय लेता है पर सोची हुयी भाषा, जैसे सोचना की “सालों पहले घर की छत पर गिरती बारिश की आवाज़ और खिड़की से देखा हुआ दृश्य जिसमें दो लोग एक बोरा ओढ़कर सड़क पार कर रहे थे”
सोची हुयी भाषा में आने वाले और बीते हुए समय को कम्प्रेस और इक्स्पैंड करने की अद्भुत क्षमता होती है जिसमें स्मृतियाँ और बीता हुआ यथार्थ एक नैरटिव रचता है
जैसे,
“बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप ।”
विनोद कुमार शुक्ल द्वारा लिखी इस कविता का एक अंश हमें एक सार गर्भित मौन की तरफ़ ले जाता है जिसकी अंतिम पंक्तियों में यह तय करना मुश्किल हो जाता है की हमने कोयल की कूक सुनी या उसके बाद का मौन सुना, कोयल आँगन के जाम पर थी या जंगल में। और हम पाते हैं कि हम एक समय में नहीं है पर बहुत सारी समय रेखाओं में अपना जीवन जी रहे हैं,
पीछे से सिकुड़ते हुए आगे फैल रहे हैं जैसे वर्तमान एक ब्लैक होल है
शायद भाषा पे आधारित सभी विधाओं में कविता वो विधा है जो समय, विचार और शब्दों के मेल से एक नया अर्थ खोजती है।
कविता का जन्म -
दृश्य में एक अधेड़ उम्र का एक आदमी बस स्टैंड पर बस के आने का इंतेज़ार कर रहा है, वो अपनी चप्पल उतार कर अपने पैर फ़र्श पे रगड़ता है और फिर चप्पल पहन लेता है, हल्की ठंडी हवाओं के कारण उसने अपनी मुड़ी हुयी आस्तीन खोल कर हथेलियों तक खोल दी है और अपनी सफ़ेद डाइल वाली घड़ी की ओर देखता है। इसी समय बस स्टैंड के सामने से गुजरना होता है तीन मनुष्यों का जो औझक में उस आदमी की तरफ़ देखते हैं और बिना कुछ चर्चा किए आगे बढ़ जाते हैं
घर लौटकर एक मनुष्य सोचता है कि ठंड से परेशान, बस स्टैंड पे खड़ा वो आदमी क्या अपनी क़मीज़ के सहारे घर पहुँच पाया होगा?
दूसरा मनुष्य याद करता है उस आदमी के चप्पल निकाल कर पैर रगड़ने को
और तीसरा सुनता है शांत कमरे में टिक-टिक करती घड़ी की आवाज़,
इन तीनों के विचार लेखक को यह खिड़की सौंपते हैं जहां से वो आमंत्रित कर सके तीन कवियों को जो कह सके इन तीन मनुष्यों की बात,
क्योंकि आज तक किसी देश की सरकार ने कभी नहीं सोचा “बस स्टैंड पर खड़े एक साधारण से आदमी के बारे में”
कवि लिखते हैं-
क़मीज़ -
विशालकाय मशीनें चलती ही रहती हैं
कपड़ा लगातार बुनता चला जाता है
कपड़ा मिल से निकले कपड़े तक
एक लंबा सफ़र है
कपास के सफ़ेद फूल का
रातपाली के
अवसादपूर्ण घंटे
तार तार ज़िंदगी
धागा धागा भूख
श्रमिक नंगा ही रहता है
ज़िंदगी के सारे रंग
बग़ीचों के सारे फूल
यहाँ छपते हैं
कपड़ों पर
ये क़मीज़ मेरी
किस क़दर तरबतर है
ख़ून और पसीने से?
चप्पल पर भात -
क़िस्सा यों हुआ
कि खाते समय चप्पल पर भात के कुछ कण
गिर गए थे
जो जल्दबाज़ी में दिखे नहीं।
फिर तो काफ़ी देर
तलुओं पर उस चिपचिपाहट की ही भेंट
चढ़ी रहीं
तमाम महान चिंताएँ।
घड़ी-
बैठा था मोढ़े पर
लेता हुआ जाड़े की धूप का रस
कि वहाँ मेज पर नगी चीखने लगी
'जल्दी करो, जल्दी करो
छूट जायेगी बस'
गिरने लगी पीठ पर
समय की छड़ी
दुख देती है घड़ी।
जानती हूँ एक दिन
यदि डाल भी आऊँ
उसे कुएँ में ऊबकर
लौटकर पाऊँगा
उसी तरह दुर्दम कठोर
एक टिक् टिक् टिक् टिक् से
भरा है सारा घर
छोड़ेगी नहीं
अब कभी यह पीछा
ऐसी मुँहलगी है
इतनी सिर चढ़ी है
दुख देती है घड़ी।
छूने में डर है
उठाने में डर है
बाँधने में डर है
खोलने में डर है
पड़ी है कलाई में
अजब हथकड़ी
दुख देती है घड़ी।
जैसे महान पेंटर Monet अपने कैनवास पर सिर्फ़ वॉटर लिली ही नहीं पर हवा से पानी में हो रही हलचल को भी खोजते थे, और यथार्थ में हो रहे हर बदलाव को अपनी भाषा में रंगों से दर्ज करना चाहते थे, वैसे ही कवि अपना समय और स्मृति अपनी भाषा में दर्ज कर के इतिहास का एक समानांतर साहित्य तैय्यार करता है ताकी अगर कल ऐतिहासिक तथ्यों में फेर बदल करने की कोशिश भी हो तो भी आम जीवन का इतिहास कम से कम शब्दों में किसी बुक शेल्फ पर या किसी छुपायी हुयी संदूक में महफ़ूज़ रहे।
1।घड़ी - केदार नाथ सिंह
2। चप्पल पर भात - विरेन डंगवाल
3।क़मीज़ -नरेंद्र जैन
4।Ravanhattha photograph -Shrinivas Prasath
5। Cover illustration -Akira Kusaka
6।Quint Buchholz