तीन कवि जैसे एक रोटी खाते हों और स्वाद में उन्हें अलग अलग शब्द मिलते हों,
मंगेश डबराल, पाब्लो नेरूदा और केदारनाथ सिंह की कविताओं में एक आम आदमी के रोज़ मर्रा जीवन में मिली हुयी वस्तुएँ अक्सर यूँ ही पड़ी मिल जाती है, कभी कभी बहुत इत्मिनान से भी रखी हुयी मिल जाती है । जैसे नेरुदा की कविता टूटी हुयी यह घंटी, आम आदमी, ग़रीबी मंगेश डबराल की कविता टॉर्च और मोबाइल और केदारनाथ सिंह की कविता घड़ी, जूते, हाथ और खुर्पी…
ये सभी कवि किसी चुप से रिश्तेदार के जैसे हमारे साथ हमारे घरों में रहते हैं या सड़कों पे हमारे साथ चलते हैं, और हमारा जीवन बहुत करीब से देख कर हमें बताते हैं की ऐसा जीवन है तुम्हारा और ये वस्तुएँ है तुम्हारी, वस्तुएँ और जीवन आपस में बंधे है, गुथे हैं जैसा पिता जी का चश्मा, किसान की खुर्पी, और जूते, चप्पल और बर्तन और क़मीज़ की बटन
चप्पल के बिना चलना, चश्मे के बिना देखना और घड़ी के बिना कलाई सुनने में अधूरा लगता है।
इन सभी कृतियों को पढ़कर मैं अनायास ही रेणु के पंचलेट और गोगोल के ओवर्कोट की तरफ़ लौट जाता हुँ फ़िर कहानी से कविता में वापस आता हूँ।
ये सभी अलग अलग समय में बैठ कर , अलग अलग जगहों से कविता लिखते हैं लालटेन के बारे में, माँझी के पुल के बारे में, रेल के बारे में, रोटी के बारे में
रोटी पे लिखी इन कविताओं को पढ़ कर लगता है की मुँह में एक नमकीन स्वाद आया है रोटी का, जो हृदय के कहीं आस पास अवतरित हुआ है
रोटी के अग़ल बग़ल लिखी तीन कवियों की तीन कविता जो एक दिशा में ले जाती है
सीधी सी बात
पाब्लो नेरुदा
शक्ति होती है मौन (पेड़ कहते हैं मुझसे)
और गहराई भी (कहती हैं जड़ें)
और पवित्रता भी (कहता है अन्न)
पेड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं सबसे ऊँचा हूँ !'
जड़ ने कभी नहीं कहा :
'मैं बेहद गहराई से आई हूँ !'
और रोटी कभी नहीं बोली :
दुनिया में क्या है मुझसे अच्छा'
नेरुदा की कविता का अँग्रेज़ी से अनुवाद : मंगलेश डबराल
रोटी
केदारनाथ सिंह
उसके बारे में कविता करना
हिमाक़त की बात होगी
और वह मैं नहीं करूँगा
मैं सिर्फ़ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आएँ और मेरे साथ सीधे
उस आग तक चलें
उस चूल्हे तक—जहाँ वह पक रही है
एक अद्भुत ताप और गरिमा के साथ
समूची आग को गंध में बदलती हुई
दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़
वह पक रही है
और पकना
लौटना नहीं है जड़ों की ओर
वह आगे बढ़ रही है
धीरे-धीरे
झपट्टा मारने को तैयार
वह आगे बढ़ रही है
उसकी गरमाहट पहुँच रही है आदमी की नींद
और विचारों तक
मुझे विश्वास है
आप उसका सामना कर रहे हैं
मैंने उसका शिकार किया है
मुझे हर बार ऐसा ही लगता है
जब मैं उसे आग से निकलते हुए देखता हूँ
मेरे हाथ खोजने लगते हैं
अपने तीर और धनुष
मेरे हाथ मुझी को खोजने लगते हैं
जब मैं उसे खाना शुरू करता हूँ
मैंने जब भी उसे तोड़ा है
मुझे हर बार वह पहले से ज़्यादा स्वादिष्ट लगी है
पहले से ज़्यादा गोल
और ख़ूबसूरत
पहले से ज़्यादा सुर्ख़ और पकी हुई
आप विश्वास करें
मैं कविता नहीं कर रहा
सिर्फ़ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ
वह पक रही है
और आप देखेंगे—यह भूख के बारे में
आग का बयान है
जो दीवारों पर लिखा जा रहा है
आप देखेंगे
दीवारें धीरे-धीरे
स्वाद में बदल रही हैं।
रोटी और कविता
जो रोटी बनाता है, कविता नहीं लिखता
जो कविता लिखता है, रोटी नहीं बनाता
दोनों का आपस में कोई रिश्ता नहीं दिखता ।
लेकिन वह क्या है
जब एक रोटी खाते हुए लगता है
कविता पढ़ रहे हैं
और कोई कविता पढ़ते हुए लगता है
रोटी खा रहे हैं ।
कवि: मंगेश डबराल
art by Heidi Smith