अशोक वाजपेयी और लीलाधर जगुड़ी की छाते पे आधारित कविताएं आपको एक ही छाते के नीचे अलग-अलग जगह ले जा सकती हैं। वाजपेयी जी की कविता में यथार्थ से भरी दो पंक्तियों के बाद एक ऐसी अद्भुत कल्पना से लदा हुआ दृश्य सामने आता हैं जैसे हयाओ मियाज़ाकि की फ़िल्म के बीचों-बीच खड़े हों।
तीन नज़रियों को छाते में समेटता लेख👍😊👌👏
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मुझे अपने बचपन के छाते कि याद दिला गई है ये कविता, जो बार बार अपने जोड़ से टूट जाता था और मैं बार बार उसे जोड़ने कि कोशिश करता था।
बहुत सारा प्यार आपको💐
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पुराने छाते की मुठिया याद आ गई.! बचपन मे में तेज बरसाती हवाओं में छाते की मुठिया को हथेलियों से साधने की निरन्तर नन्ही कोशिश होती थी।
वाह! क्या बात है दा। धन्यवाद