अशोक वाजपेयी और लीलाधर जगुड़ी की छाते पे आधारित कविताएं आपको एक ही छाते के नीचे अलग-अलग जगह ले जा सकती हैं।
वाजपेयी जी की कविता में यथार्थ से भरी दो पंक्तियों के बाद एक ऐसी अद्भुत कल्पना से लदा हुआ दृश्य सामने आता हैं जैसे हयाओ मियाज़ाकि की किसी फ़िल्म के बीचों-बीच खड़े हों।
वहीं,जगुड़ी जी का छाता उन्हें और उनके दोनो भाइयों और कभी कभी उनकी सह-पाठिन को भरपूर जगह दे दिया करता था! पहले के बड़े छातों और आज की छोटी छतरियों को देखते हुए वो आज के इंसान के अकेले होने की बात भी रखते हैं!
अशोक वाजपेयी का छाता -
छाते से बाहर ढेर सारी धूप थी
छाता-भर धूप सिर पर आने से रुक गई थी
तेज हवा को छाता
अपने-भर रोक पाता था
बारिश में इतने सारे छाते थे
कि लगता था कि लोग घर बैठे हैं
और छाते ही सड़क पर चल रहे हैं
अगर धूप, तेज हवा और बारिश न हो
तो किसी को याद नहीं रहता
कि छाते कहाँ दुबके पड़े हैं
जगुड़ी जी का छाता-
भारत में बरसातें अब भी बड़ी हैं
आड़ी तिरछी, लम्बी चौड़ी बरसातें
जो कि दिन रात बरसतीं आखिर पुराने छाते की याद दिला ही देती हैं
यह जो छोटी सी एक आदमी लायक छतरी लाया हूँ
उसमें अकेला भी भीग रहा हूँ ...
जब हाई स्कूल पास किया था
तो घर में एक छाता होता था
बड़ा सा
हम तीन भाइयों के लिए
जो कि काफ़ी पड़ता था
छाते की तरह भाइयों में मैं ही बड़ा था...
पर छाता लेकर जब कभी
मैं कॉलेज जाता और कोई सहपाठिन कभी उसके नीचे आ जाती
तो बिना सटे भी हम भीगते नहीं थे
अलबत्ता पायँचे भीगे हुए होते थे
पुराने छाते पारिवारिक और सामाजिक लगते थे
जबकि ये छतरियाँ व्यक्तिवादी और अकेली लगती हैं
ये शायद धूप के लिए हैं, बारिश के लिए नहीं
जब कि घर वाले मुझसे ही तीन-चार काम ले लेते थे
खेत में किसान का
इधर-उधर हरकारे का
स्कूल खुलते ही वे मुझसे स्कूल जाने का काम लेते थे।
पुराना छाता देख कर धूप प्रचण्ड हो जाती
बादल उमड़ आते थे
तेज़ बारिश हो या तेज़ धूप
बस, जल्दी-जल्दी घर पहुँचना याद आता है
जैसे किसी और भी पुराने और भी बड़े
किसी दूसरे छाते के नीचे आ गए हों
जब भी मैं उसे कहीं भूला
रात को दोस्तों के घर ढूँढ़ने जाना पड़ता था
बरसाती अन्धेरी रातों में सिर्फ़ कानों को सुनाई देता है छाता
बारिश हो रही हो और छाता न हो
आसमान एक उड़े हुए छाते जैसा लगता है
धूप हो तो साथ चलते पेड़ जैसा लगता है छाता
अगर बारिश न हो रही हो रात में
तो छाता सिर पर हो या हाथ में किसी को नहीं दिखता
चमकती बिजली चमकते हत्थे की याद दिला देती
चमकता हत्था टॉर्च की याद दिला देता
(जो हमारे घर में नहीं था)
अब तो पुराने छाते जैसी घनी तनी रात भी
कम ही दिखती है उतनी अन्धेरी, उतनी बड़ी
कितनी तरह के उजालों से भर गई है वही रात।
Title illustration: Troche, an Uruguayan cartoonist.
Image 2 by Ajay de
Image 3 by Mopasang Valath
Image 4 by John kenn
तीन नज़रियों को छाते में समेटता लेख👍😊👌👏
मुझे अपने बचपन के छाते कि याद दिला गई है ये कविता, जो बार बार अपने जोड़ से टूट जाता था और मैं बार बार उसे जोड़ने कि कोशिश करता था।
बहुत सारा प्यार आपको💐