मक़सूद मास्टर का स्वान गीत
मक़सूद मास्टर को लगा जैसे कपड़ा सीते सीते वो खुद को भी सीते जा रहे हैं।
मक़सूद चाचा बैठे सिलायी मशीन के पीछे, डायरी उठायी, हिम्मत सिंह का नाप डायरी में ढूँढकर, लगे कुरता काटने। घंटो से सिलायी मशीन के चक्के की कर्कश आवाज़ सुनते-सुनते उनके कान भर्रा गए थे। रुक कर उन्होंने थोड़ी साँस ली फिर मशीन पे जमी धूल को साफ़ कियाफिर अपने ऐनक को!हल्का सा तेल मशीन के चक्के पर धीमे से छोड़ा
कमरपट्टे को और थोड़ा कसकर मास्टर मक़सूद कुर्सी पे टिके! टिके तो लगा कि बस टिके ही रहें। ब्लड प्रेशर के गोली फाँक के आँखें ज़रा देर के लिए बंद की- सहसा उस बड़े से काले पक्षी की लाल आँखें और लम्बी चोंच मक़सूद चाचा के ऐनक के सामने तैर गयी जो आँगन के जामुन की सबसे नीची डाल पर स्थिर बैठाथा! शरीर जैसे गिद्ध का, लम्बी गर्दन और तेज़ चोंच ! घूरती लाल आँखें।
सुबह आँगन में बिल्ली के छोटे छोटे बच्चे यहाँ से वहाँ कूद रह रहे थे! वह पक्षी जैसे ही अपनी तेज़ कर्कश आवाज़ में चिल्लाया, बिल्ली के बच्चों के साथ एकपल के लिए चाचा भी सहम गए थे। चाचा ने उसे छड़ी दिखायी, वो दो पंजे पीछे हुआ पर बैठा रहा। एक एक करके चाचा ने सारे बच्चों को पकड़ कर घर केअंदर कर दिया! पर उसकी नज़रें जैसे मक़सूद चाचा पर ही जमी हूयी थी।पड़ोस के बेग बाबू ने अपनी छत से चिल्ला कर उन्हें बताया था
“हेरॉन पक्षी है! शांत स्वभाव का होता है, कुछ नहीं करेगा, अख़बार में तस्वीर छपी है इनके झुंड की, झील के पास बड़ी संख्या में आए हैं! प्राचीन मान्यता केहिसाब से इनका दिखना शुभ होता है! नयी सम्भावनाएँ सामने आती हैं! और ये जिस जगह जाते हैं वहाँ से अपने साथ कुछ लेकर भी जाते हैं!”
दुकान के भीतर शहद बनाने में व्यस्त एक मधुमक्खी की तरह मक़सूद चाचा अपनी मशीन पे लगे हुए थे ! आज उन्हें ना समय का बीतना पता चल रहा था औरना ही उनकी कांपती उँगलियों की कमजोरी, कमरपट्टे में बंधी कमर का दर्द भी वो भूल चुके थे पर विचार धड़धड़ाते हुए उनके दिमाग़ में दौड़ रहे थे
सुबह जब बेग बाबू ने छत से आवाज़ लगायी थी तो उनके चेचक के दागों से भरी शक्ल देख मक़सूद चाचा को ज़बरदस्त खीज हूयी थी, बेग बाबू रिटायर होनेके बाद से दिन भर अपनी छत पे जमे रहते थे।मक़सूद चाचा के घर का गुसलखाना टाट और बांस से बना हुआ था ! ऊपर से लगभग खुला, तबस्सुम औरशकीला जब भी गुसलखाने में जाती तो उसे ऊपर से बांस के सहारे या किसी बड़े खड्डे से ढाँका करती थी। मक़सूद चाचा को पूरा शक था की बेग बाबू नज़रेंबचा कर उनकी बेगम और बच्ची को बुरी नज़र से देखा करते हैं। कई कई बार तो मक़सूद चाचा घंटो गुसलखाने में बैठे रहे की बेग बाबू ताक -झांक करेंगे परबेग बाबू को कभी वो पकड़ नहीं पाए!
उल्टा एक दिन बेग बाबू खुद मक़सूद चाचा के घर अपने लड़के की मोबाइल दुकान से मोबाइल कम्पनी के विज्ञापन का बड़ा सा होर्डिंग उठा लाए थे जिसपर“चमचमाते हुए फोन से एक लड़की के फ़ोटो खींचने का” फ़ोटो बना था।गुसलखाने को ढाँकने के बाद जब मक़सूद चाचा नहाते नहाते ऊपर देखते तो लगता की वो लड़की इन्हीं की फ़ोटो खींच रही है।बेग बाबू के दूसरे बेटे की मेडिकल से मक़सूद चाचा के घर हर महीने उधारी पे दवाइयाँ भी आती थी! मक़सूद चाचा जानते थे कि बेग बाबू जान बूझ के ये सबकरते हैं पर मक़सूद चाचा करते भी क्या! बाक़ी सारी दुकानों पे दवाइयों में छूट नहीं मिलती थी
चाचा ने ऐनक के एक टूटे सिरे को और कान को जिस काले धागे से बांधा था वो बार बार सिलायी करते करते ढीला पड़ जाता, उसे कान के पीछे घुमा करकसते और फिर काम में लग जाते।अब्दुल चाचा की मोटी नाक पे टिके टेढ़े चश्मे से सब टेढ़ा ही दिखाए देता जैसे समतल सीधी सड़क पे ढलान नहीं भी हो तोभी दिखती। कलकत्ते सिल्क का कपड़ा उन्होंने हाथ में उठाया और डायरी में हिम्मत सिंह का नाप टटोलकर चाल्क से हल्के हल्के निशान लगाए और आस्तीनतराशने लगे! फिर मशीन का चक्का जब घुमा कर देखा तो रह रह कर ऐसी आवाज़ करता जैसे कोई बड़ा प्रवासी पक्षी अपनी कर्कश आवाज़ में चीख रहा है।“आप चश्मा क्यों नहीं ठीक करवा लेते?” सामने बैठे अशोक बाबू ने गुटका चबाते हुए, अख़बार की नोक के पीछे से गर्दन उठा कर कहा, अब्दुल चाचा गर्दनझुकाए मशीन के चक्के में तेल डालते रहे ।
कोसे के कपड़े को देखकर अशोक बाबू बोले “असली कोसा है!आजकल कहीं मिलता भी है?”
चाचा चुपचाप नाप बुदबुदाते हुए अपने काम में लग रहे
“दोनो कुर्ते आज शाम में ही सी देंगे आप?”
चाचा को काम में लीन देखकर अशोक बाबू कुछ देर चुप रहे फिर बोले “बेग बाबू और शिवचरन के बीच शर्त लगी है”। मक़सूद चाचा ने धीरे से अपनी गर्दन ऊपर उठायी, अशोक बाबू को अपनी विजय पे गर्व हुआ
“अगर आपने ये दोनों कुर्ते तय समय में सिल दिए तो शिवचरन एक हफ़्ते तक बेग बाबू के दोनो कुत्तों को घुमाने ले जाएगा! “और अगर नहीं सिल पाए तो ?” मक़सूद चाचा ने गम्भीरता से पूछा और साफ़ सुनने के लिए आगे झुके! अशोक बाबू ने कुछ कहा पर मक़सूद चाचा को समझ ही नहीं आया
“आप पहले गुटका थूकिए अशोक बाबू !”
अशोक बाबू ने गुटका थूका! फिर इत्मिनान से पानी पीकर कुल्ला किया
मक़सूद चाचा अपना काम रोके बैठे अशोक बाबू को यहाँ से वहाँ एक-एक कदम रखते देखते रहे
“अगर आप कुर्ते ना सिल पाए तो एक हफ़्ते तक बेग बाबू शिवचरण की दुकान पे नौकरी करेंगे!”
एक सेकंड के लिए मक़सूद चाचा का चेहरा सिकुड़ गया जैसे पन्नी जलती है फिर फ़ूला जैसा ग़ुब्बारा!
“हमारी मजबूरी कोई शर्त लगाने के चीज़ है अशोक बाबू!” मक़सूद चाचा के स्वर में लाचारी थी, “नहीं नहीं ऐसी बात नहीं है” अशोक बाबू ने थोड़ा सम्भालने कीकोशिश में कहा पर मक़सूद चाचा ने उनकी बात, कपड़ा काटते काटते बीच में ही काट दी। हम कोई करतब कर रहे हैं जो ये लोग सट्टा लगा रहे हैं हमारे रोज़ीरोटी पे!”फिर रुक कर अपने ग़ुस्से को गटका, याद आया कि ऐसा समय में उनकी बिटिया तबस्सुम उन्हें लम्बी लम्बी साँस लेने के लिए कहती है, कैसे शकीलापीठ पर हाथ फेरती है , शकीला और तब्बू के स्पर्श से उनकी तेज़ साँसें धीमी होकर सामान्य हो जाती है!
दो घूँट पानी गटक कर उन्होंने फिर कहना शुरू किया क्योंकि कहना ज़रूरी था,
इस बार सधी हुई आवाज़ में! सधे हुए शब्दों के साथ
“कोई काम धंधा अब रहा नहीं है इन लोगों के पास! बेग रिटायर हो चुका है जब से ऐसे ही आवारा घूमता रहता है, जवान मर्द समझने लगा है अपने आप को।और ये शिवचरण ! इसके तो लड़के बच्चे सम्भाल रहे हैं अब इसका धंधा। हम आज भी इस टूटी कुर्सी पे बैठ के यहाँ अपना कलेजा जला रहे हैं, एक एक रुपएके लिये लड़ रहे हैं और ये हरामजादे! शर्त लगा रहे हैं। लगाने दीजिए शर्त, हम दो नहीं दस कुर्ते सिल देंगे ! सत्तासी में कलेक्टर वर्मा के कपड़े सिले हैं हमने! आज भी याद करते हैं वर्मा साहब! एक टाँका इधर का उधर नहीं हुआ था उनकी क़मीज़ का”
“वर्मा कलेक्टर तो कब के मर गए!” बेग बाबु ने मक़सूद चाचा को रोकते हुए कहा
“क्या बात कर रहे हैं अशोक बाबू! ये कब हुआ?” मक़सूद चाचा ने चश्मा पोछते हुए अशोक बाबू की आँखों में गहरा देखा
अचानक तेज आवाज़ करती हुई मशीन चुप हो गयी !“फिर बातों में लग गए आप ! ये ख़त्म कीजिए, इत्मिनान से बताएँगे फिर !” अशोक बाबू बहुत धीमे सेमुस्कुराए। मक़सूद चाचा काम की और कुछ बड़बड़ाते हुए लौट गए
आज सुबह सुबह हुआ यूँ की
मक़सूद चाचा पिछले साल के कैलंडर के सामने खड़े खड़े ये सोच रहे थे कि आख़िर तेरह जुलाई की तारीख़ पर ये लाल घेरा क्यों लगा हुआ है !लाल स्याही से तो वो सिर्फ़ बहुत ज़रूरी तारीख़ों पे ही निशान लगाया करते थे, ऐसा क्या हुआ तेरह जुलाई को? उन्होंने डायरी पलटायी, ग्राहकों के नाम को पलटते-पलटते जब वो पहुँचे तेरह तारीख़ तक तो उनका दिल बैठ गया ऐसा कि उठे ही ना
तेरह तारीख़ को उन्होंने फ़ैसला किया था कि अपने होने वाले दामाद को अपने हाथों से सिया हुआ पठानी और शेरवानी भेंट करेंगे और अपने तबस्सुम के लिए उसकी पसंद का शरारा! बहुत ही भोली सीरत का लड़का मिला था, एकदम ठीक था तबस्सुम के लिए, बस अपने बाप से ज़रा दबा दबा रहता था !जैसे शकीला बेगम को लगता है की अपने हाथ से किसी को खाना पका कर खिलाने से ज़्यादा अपनापन और कुछ में नहीं वैसे ही मक़सूद चाचा को लगता थाकि अपनों को, हाथ से सिए कपड़े पहनाना सबसे ज़्यादा आत्मीय काम है
अलग तरह की ग़र्माहट महसूस होती है, जैसे एक कवि कविता लिखता है वैसे ही एक दर्ज़ी कपड़ा सिलता है। एक एक शब्द, एक-एक सिलायी के बराबर होताहै, आख़री में आदमी पूरी कविता पहन के चलता है।
तेरह तारीख़ को ये ख़ास भेंट वो अपने होने वाले दामाद और दुख़तर को भेंट देने वाले थे पर पता नहीं क्या हुआ! तबस्सुम निकाह से मुकर गयी! गणित से बैचलर करने के बाद अब वो मास्टर्ज़ करना चाहती थी।
“उसका कोई अपना वजूद ही नहीं है ! पूरी ज़िंदगी वो अपने अब्बू के फ़ल के दुकान ही चलाते रहेगा ! मैं क्या करूँगी ऐसे आदमी के साथ !” तबस्सुम ने अपनीतेज आवाज़ में साफ़ ज़ाहिर कर दिया
“हमने भी तो सारी ज़िंदगी यही किया है! क्या मतलब है तुम्हारा”शकीला ने अपने शौहर की ओर देखा! “आप कुछ बोलते क्यों नहीं?” मक़सूद चाचा चुप खड़े रहे!
“उसको करने दो जो करना है तुम अपनी पढ़ाई करते रहना निकाह के बाद। कोई मनाही थोड़ी ना है” शकीला बेगम ने तबस्सुम को आज सुबह भी समझाने केकोशिश क़ी थी
“आप पढ़ पायी आगे मेट्रिक के बाद!” तबस्सुम का सवाल सुन के शकीला चुप रहीं
“बताइए अब्बू! अम्मी क्यों नहीं पढ़ पाई मेट्रिक के बाद!” शकीला को चुप देख़ कर मक़सूद चाचा भी चुप रहे।
खड़े रहे वो, एक मुजरिम के जैसे सर नीचे किए !
“बहुत ज़ुबान चलती है तुम्हारी तब्बू, वो समय अलग था”
“बस यही तो मैं भी कह रही हूँ! ये अलग समय है!”
तबस्सुम अपने हाथ में अपने तमाम सर्टिफ़िकेट लेकर निकलने लगी! शकीला बेगम ग़ुस्से से फूल चुकी थी, मक़सूद चाचा ने आँख धीरे से झपक कर शांत हो जाने की हिदायत दी। दरवाज़े से जब रोशनी तबस्सुम पर गिरी तो मक़सूद चाचा को उनकी तब्बू, उनके हाथ के सिले सूट में बहुत सुंदर लगी जैसे ग़ुस्सैल परी! वो मुस्कुराए पर शकील बेगम की चढ़ी हुयी भौं देख़ कर गम्भीर हो गए।
“सेवैयीं खाकर जाओ! नौकरी मिल जाएगी!” अब्बू ने कटोरी तबस्सुम के हाथ में थमायी
“कब लौटोगी?”मक़सूद चाचा ने सवाल किया
तबस्सुम ने कहा “कल सुबह की पहली ट्रेन पकड़ के आ जाऊँगी, लौटने के लिए और कोई गाड़ी नहीं है आज़, फ़ातिमा भी साथ जा रही है साथ, आप फ़िज़ूलचिंता ना करें”
“सहेली क्या तुम्हारे तो सहेले भी साथ जाएँ हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता” तब्बू ने जवाब देने के लिए अपना मुँह खोला ही था की अब्बू ने सेवैयीं आगे कर दी!तबस्सुम ने एक चम्मच चखा और बाहर निकलते हुए अब्बू को याद दिलाया
“गोली खाना मत भूलना आप!”
“तुम भी मत भूलना” अब्बू ने पर्दे की आड़ से कहा, तबस्सुम उन्हें कौतुहल से देखते रही
फिर बाहर आए “ग़ुस्से के कोई गोली आते होगी तो तुम अपने लिए शुरू कर दो ! मुझसे जो कहना है कह लिया करो पर अपनी अम्मी के सामने ऐसे कुछ भीबोलोगी तो ! देखो अब दिन भर चुप बैठे रहेंगी !”
“ठीक है अब्बू, ट्रेन का टाइम हो गया है, हम निकलते हैं”
“और हाँ नौकरी मिलते ही सबसे पहले आपके लिए चश्मे का फ़्रेम लेंगे, अच्छी कम्पनी का!” ये कहकर तबस्सुम बाहर की ओर दौड़ गयी। उसके पीछे-पीछे जबमक़सूद मियाँ बाहर निकल रहे थे बस तब ही लाल आँखों वाला पक्षी दिखा था।
दुकान पहुँचे तो हिम्मत सिंह अपने शागिर्दों के साथ मक़सूद चाचा के आने का इंतेज़ार करते हुए मिला!
हिम्मत सिंह के नाम से बड़े बड़े गुंडे डरते थे ! वो कोई पूलिस वाला नहीं था पर खुद एक गुंडा था जो अब धीरे धीरे राजनीति में सक्रिय हो गया था! कल सांसद के घर पर इस बात पे फ़ैसला लिया जाने वाला था कि विधायक का टिकट इस बार किसे मिलेगा। हिम्मत सिंह उम्मीदवार के रूप में आमंत्रित था
“अब सांसद के घर कुछ तो अच्छा, नया पहन के जाना होगा ना चाचा! और आपके अलावा अब ये कौन सिल सकता है” शागिर्दों ने एक लय में कहा “कोई नहीं, कोई नहीं!”
“हिम्मत बेटे! सिल तो हिम देंगे पर एक दिन तो बहुत कम होता है! कपड़ा भी देखो, कोसा है ! बारीक काम है ज़रा !”
“चाचा बहुत उम्मीद से आए हैं आपके पास! आपकी और आपके मशीन के अलावा कोई भी यह काम नहीं कर सकता!”
"वो मैं समझ रहा हूँ पर!”
हिम्मत सिंह ने पाँच सौ रुपए का एक नोट टेबल पे रखा। मक़सूद चाचा नोट देख़ कर बुदबुदाए “पैसों की बात नहीं है बेटा”। हिम्मत सिंह ने पाँच सौ का एक और नोट टेबल पर रखा ! मक़सूद चाचा अचानक चुप हो गए , दोनों हाथ उठा कर चश्मे के पास तक लाए ! सामने धूप रोककर खड़े शागिर्दों को हटने का इशारा किया और नोट को आँख के रख कर देखने लगे।“ये अड्वान्स दिए हैं इसलिए की बाक़ी के दूसरे काम छोड़कर आप पहले ये ख़त्म करें ! कल आएँगे ! सुबह इतना ही और देकर जाएँगे! बस आप काम पूरा करदें!” हिम्मत सिंह ने आदेश दिया
मक़सूद चाचा ने थूक गटका और बिना सोचे हाँ में सर हिला दिया
“हिम्मत भैय्या! बड़े लड़ईय्या!”
“हमारा विधायक कैसा हो! हिम्मत भैय्या जैसा हो!”
नारों के साथ हिम्मत सिंह का कारवाँ ओझल हो गया।
“इस बार किराए के कोई चिंता नहीं! महीने में हर दूसरे दिन मुर्ग़ा खा सकते हैं! मटन अब पचता नहीं, शकीला को मार्केट भी ले जाना है! उसे कुछ ना कुछख़रीदना ही होता है, नयी कुर्सी भी लाई जा सकती है, चक्के वाली! यहाँ से वहाँ जाऊँगा, गोल गोल घुमूँगा! कमर को आराम मिलेगा ! नहीं ये सब कुछ नहींलूँगा! ऐक्यू -प्रेशर वाली चप्पल ख़रीद लूँगा। ब्लड प्रेशर कंट्रोल में रहेगा! नहीं पर शकीला को बुरा लगेगा, उसके लिए भी कुछ लेना चाहिए! तबस्सुम कोअच्छी जूतियाँ दिला दूँगा, दिन भर यहाँ से वहाँ पैदल भागते रहती है , स्टडी टेबल ले दूँगा तो एकदम चहक उठेगी। थोड़ा अकड़ता तो और पैसे कमा सकताथा। कहीं दो हज़ार कम तो नहीं है, सोच के लगता तो नहीं की कम हैं”
कुछ ही देर हुयी थी कि हिम्मत का छोटा भाई मरम्मत सिंह वहाँ अपने शागिर्दों के साथ पहुँचा और चाचा के टेबल पर एक कपड़ा रखते हुए कहा
“सुने हैं हिम्मत का कपड़ा कल सुबह तक सी देंगे आप!”अपनी मूछों पे ताव देते हुए उसने कहा “बुलावा तो हमको भी आया है सांसद जी के यहाँ से।मक़सूद चाचा चुप चाप बैठे रहे , मरम्मत सिंह के तोंद के नीचे फंसी पिस्तौल साफ़ दिख रही थी और मुसलमानों से इसका बर्ताव कोई ख़ास अच्छा नहीं हैइसलिए मक़सूद चाचा चुप बैठे रहे।
“वो दो दे रहा है हम चार देंगे” मरम्मत ने अपना नाप देने के लिए बाहें खोल दी और अपना मोटा पेट अंदर खींच कर ऐसे खड़ा हो गया जैसे कोई महान योद्धा हो।मक़सूद चाचा को अचानक ठसका लग गया ! नाक पे बंधा ऐनक और टेढ़ा हो गया, उसे ठीक करते हुए चाचा ने मरम्मत का नाप लेने खड़े हुए
"पर बेटे मरम्मत?”
मरम्मत सिंह ने पलट कर चाचा की ओर देखा
“कल सुबह तक कैसे मैं दोनो कुर्ते सी पाऊँगा?”
“दर्ज़ी आप हैं की मैं!” थोड़ा रुक कर मरम्मत सिंह फिर बोला “कौन कहता है दो कुर्ते सिलना है, आप एक ही पे फ़ोकस कीजिए” मक़सूद चाचा चुप बैठे रहे, मरम्मत सिंह मुस्कुराता रहा, पीछे बेग बाबू के कुत्तों के भौंकने के आवाज़ आ रही थी
मरम्मत ने उनके हाथों में चार हज़ार रुपए थमाए, अपना पूरा नाप दिया और जाते जाते “भरोसा है आप पे चाचा, कल मिलते हैं।”
“किसमें इतनी हिम्मत है
जब हमारे भैय्या मरम्मत हैं”
“हमारा विधायक कैसा हो! मरम्मत भैय्या जैसा हो!”
नारों की गूंज दूरी में ओझल हो गयी
“हिम्मत सिंह और मरम्मत सिंह के नाप डायरी में देखते बैठे रहे चाचा, दोनो के सीने छप्पन दशमलव इंच के आस पास के थे। अचानक चाचा के आँखों में एकचमक उठी !
"कुछ और पैसे मिलाकर एक पलंग ले लूँगा! एक अच्छे गद्दे के साथ! कमर दर्द से राहत मिलेगी और शकीला को भी आराम मिलेगा! और पलंग पे सोने काअपना मज़ा है! इतने बरस बीत गए, दोनो नीचे गद्दा डाल कर ही सोते आ रहे हैं पर अब नहीं! शकीला एकदम खुश हो जाएगी! रोज़ घुटनों में दर्द रहता है उसे! कितनी तकलीफ़ होती है उठने बैठने में। पचासवीं सालगिरह की भेंट उसे, मेरी तरफ़ से!”
हिम्मत सिंह और मरम्मत सिंह के एक के बाद एक धड़ा धड़ मोहल्ले में आने से लोग उत्सुक हो गए थे और जल्द ही बात फैल गयी की मक़सूद चाचा को एकदिन में दोनों भाइयों के कुर्ते सिलने हैं ! बेग बाबू और शिव विचरण के बीच शर्त ने इस बात को और हवा दे दी।
मक़सूद मास्टर भी हल्के हल्के कहीं अंदर ये बात जानते थे कि अब उनमें वो बात नहीं रही, कमजोर होती आँखें, कपकपाते हाँथ , साँस की तकलीफ़, कमरपट्टेमें जकड़े बूढ़े दर्ज़ी से क्या उम्मीद करेंगे आप! पर यही तो मौक़ा है मियाँ ! जो लोग सालों में नहीं कमा पाते वो हम एक दिन में कमा लेंगे ! इज्जत ! सालों तकलोग याद करेंगे कि इस उमर में भी मक़सूद मियाँ की कलाई सिलायी मशीन पे बहुत तेज चलती है ! बेग को भी जतला दूँगा की अभी मैं बूढ़ा नहीं हुआ हूँ !”
पर आज सभी तकलीफ़ों को खीसें में डालकर भूल जाने में ही भलाई है। मक़सूद चाचा वैसे कभी स्टाइल कैटलॉग नहीं देखते पर वो ये कुर्ता स्पेशल डिमांड पे सिल रहे थे।वैसे कभी कोई ग़लती भी नहीं होती पर आज कोई भी रिस्क नहीं ले सकते
अब्दुल चाचा ने घड़ी के ओर देखा फिर सोचा की अगर मैं इस बूढ़े शरीर का पूरा ज़ोर लगा दूँ तो शायद मैं दोनो कुर्ते सी सकता हूँ ! दोनो भाइयों से पैसा मिलसकता है, कुर्सी पे पीछे टिकते ही कमर से एक कराह निकलीं अब्दुल चाचा धीमे धीमे खड़े हो गए
कलकत्ते के बीड़ी फिर सुलगी, अब्दुल चाचा अपने दाढ़ी खुजाते हुए एक टक एक दिशा में देखते रहे
“अगर आज ही पलंग वाले को अड़वांस दे दूँ तो कल सुबह तक पलंग घर पहुँच जाएगा! शकीला के सारी शिकायतें ग़ायब हो जाएँगीं जब ऐसे महारानी जैसेलेटेगी, अपने पलंग पे! नाज़ करेगी मुझपे बेगम!”
अब्दुल चाचा ने घड़ी के ओर देखा! खुद को आश्वस्त किया कि अगर मैं अगले एक घंटे में पलंग बुक करवा के लौट आऊँ और काम शुरू कर दूँ तो रात तकहिम्मत का कुर्ता सिल जाएगा और फिर सुबह तक मरम्मत का!
हाँ यह सही है
चमकदार शीशम के लकड़े से बने पलंग को अब्दुल चाचा ऐसे निहार रहे थे जैसे सामने उसपे शकीला ही लेटीं हो!
“अरे बैठ के देखिए!”दुकानदार ने अब्दुल चाचा के कंधे पे हाथ रखा और उन्हें पलंग पर बैठाया
अब्दुल चाचा को लगा जैसे उनकी तशरीफ़ के नीचे बादलों का बिछौना बिछा है।
अब्दुल ने दुकानदार के तरफ़ देखा“जी! लेट सकता हूँ!”
“अरे कम्बल ओढ़ के सो जाइए! आप ही का है!’
“क्या कहा?”
“आप ही का पलंग है?”
“अपना पलंग! बेग़म ! अपना नरम पलंग !” चाचा मन ही मन गद -गद हो गए
सोचते सोचते अब्दुल चाचा झपकी पकड़ ही रहे थी कि
“चाचा जान! पसंद आ गया हो तो बुक करवा दीजिए!”
अब्दुल चाचा ने आँखें खोली “हाँ जी बुक करवा दीजिए!”
जेब से कुछ अड़वांस निकाला, “बाक़ी कल! घर पहुँचने के बाद”
पता लिखवा कर अब्दुल चाचा दुकान पहुँचे तो धूप जाने को थी!
बस अब शुरू किया जाए कारवाँ!
हिम्मत सिंह का कुर्ता सिलते सिलते तीन घंटा बीत चुका! रोज़ जी तरह अशोक बाबू अखबार दबा के अपने साथ चलते बने। सामने से बेग बाबू अपने कुत्तों के साथ गुज़रे। उन्हें देखकर मक़सूद चाचा एकदम रिलैक्सड होकर काम करने लगे ! पाकीज़ा के “चलते चलते” गीत कोगुनगुनाते हुए बेग बाबू जी हाथों में लटकी काली पन्नी को देखकर बोले
बाबू! क्या ख़ास पक रहा है आज मतबख में?”
बेग बाबू अचानक रुके “कुत्तों के लिए है!”
“आदमी से ज़्यादा खुराक है इनकी! दोनों दिन भर में बीस रोटी खाते हैं, मटन अलग”
“कुत्ता पाला है कि हाथी!” अब्दुल चाचा को लगा बेग बाबू हँसेंगे पर वे नहीं हंसे, मक़सूद चाचा ने फिर पूछा “आप क्या खाएँगे फिर!”
“खिचड़ी!”
“झूठ बोलता है साला बेग! बीस रोटी ! मटन चिकन। हर रात जाकर कसाई गली से कचरे में पड़े मुर्ग़े के पंजे माँग के लाता है और बताता है की !”
बेग बाबू कुछ देर खड़े होकर मक़सूद को काम करते देखते रहे फिर आगे बढ़ गए !
सिलायी मशीन के नीचे लगे चक्के में अब्दुल चाचा ने थोड़ा सा तेल डाला! चक्के को घुमाकर देखा, मशीन का चक्का बिना आवाज़ किए घूमता रहा! कलम से कपड़े पे जगह जगह पे निशान लगाए! मशीन में नयी रील फ़ीट की, सुई में धागा डालने की जद्दोजेहद शुरू हुई-
अचानक ट्यूबलाइट बंद ! पंखा भी धीमी गति से घूमते घूमते अब लगभग अब्दुल चाचा के सर पे रुक गया।एक मिनट भी नहीं बीता था की पसीने के एक बूँद टप्प से टेबल पे टपकी, चाचा ने पसीना पोंछ,दिन का उजाला कम हो चला था, जो थोड़ी बहुत रोशनी थी उसमें काम करना कठिन था !
चाचा ने चश्मा उतारकर अपने आँखें पोंछी फिर, उठाकर एक कोने में गए और दिया– सलायी ढूँढ कर लाए, उसे साफ़ किया! तेल डाला, और बत्ती सुलगायीजैसे ही कुर्सी के ओर कदम बढ़ाया ! कुछ टूट कर चरमराने की आवाज़ उनके कानों तक पहुँची
उन्होंने नीचे देखा तो चाचा चश्मे के इकलौती डंडी पे पैर रखे खड़े थे।
“ला हौल वला कूवत!’ उनके मुँह से निकला।ऐनक उठाने के लिए जब झुके तो दर्द के कारण चीख पड़े कमर पट्टा टाइट कर जैसे तैसे कुर्सी तक पहुँचे! लम्बी लम्बी साँसें ली और अब चश्मे के दोनो सिरोंको कान में बांधा, दिया- सलायी की रोशनी में कीड़े उनके मुँह के आस पास भन-भनाने लगे।
चाचा सोचने लगे “तबस्सुम इतना चिढ़ती है मक्खियों से! यहाँ होती तो तो अख़बार से एक एक का क़त्ल कर देती। अख़बार से याद आया रोज़ बिना बताएँबग़ल में अख़बार दबाकर चुप चाप चले जाते हैं अशोक बाबू ! ये कोई बात हुई! !महीनों तक गट्ठा बना कर फिर रद्दी में बेच देते हैं। उन्हें क्या लगता है हमें येसब पता नहीं ! ख़ैर !कल आएँगे तो सीधा बात की जाएगी”
पर कल तो पहले हिम्मत और मरम्मत आएँगे!
रह रह के हिम्मत और मरम्मत के चेहरे उनके सामने नाच रहे थे!
और जहन में शीशम के पलंग पे आराम से सोते मियाँ बीवी
अब्दुल चाचा ने पसीना पोछा!
अंधेरा घिर आया था! शकीला बेगम का फ़ोन बज उठा
“बेगम आज आप बिल्कुल भी फ़ोन ना करें! बहुत काम बाक़ी है! आज रात हम यहीं सो जाएँगे!”
बेगम ने अपनी बात और कही “गोली हम साथ ही ले आए थे! आप चिंता ना करें!” कहकर चाचा ने फ़ोन काट दिया। काम बाक़ी भी था , जैसे तैसे अब्दुल चाचा दिया सलायी के रोशनी में हिम्मत सिंह का कुरता सी रहे थे, बीड़ी लेने रुकते तो एक हाथ से डायरी में मरम्मत सिंहका भी नाप देख लेते, उसके कपड़े पे निशान लगा देते!!
आस पास के सारी दुकानें बंद हो चुकी थी!
सिर्फ़ सिलाई मशीन की आवाज़, बेग बाबू के कुत्तों के साथ सुनायी देती
अब्दुल चाचा ने शटर अंदर से गिरा लिया था, गर्मी के कारण वो पसीने से भीग चुके थे। अपना पसीना पोछते और मशीन को बोलते “चल मेरे घोड़े! टुक टुकटुक”।हिम्मत सिंह का कुरता लगभग रिकॉर्ड स्पीड पे सिल के चाचा को ज़रा आराम मिला ! उन्होंने कुर्ता उठाया और सलीके से हैंगर में टांग दिया, बीड़ी सुलगायी!
फिर मशीन को कहा “थोड़ा आराम कर ले मेरे घोड़े!”
अजीब सी बेचैनी को दरकिनार कर चाचा जा बैठे वापस अपनी कुर्सी पे। मरम्मत के कुर्ते का कपड़ा उठाया, उसकी क्वालिटी उँगलियों से परखी फिर लगे कपड़ाकाटने, चाल्क के निशान, मशीन की आवाज़, एक बूढ़े दर्ज़ी की कारीगरी का पैनापन, अगर कोई मक़सूद चाचा को इस तरह से काम में मशगूल देख़ लेता तो उसेयही लगता की उन पर कोई जिन सवार है। उन की उँगलियाँ कुर्ते की कालर को शेप देती, उनकी कलायी, मशीन के किनारे पर बैलेन्स ढूँढती, रील से धागाछूटता, मशीन का चक्का एक सिरे में घूमता किट किट किट किट की तेज आवाज़ , मक़सूद चाचा की खांसी। ये सब साथ मिलकर एक अब्सर्ड संगीत रच रहेथे। मक़सूद चाचा को इतना मज़ा सालों में कभी नहीं आया था।“ कल चारों ओर उन्ही के चर्चे होंगे, शकीला कितनी खुश होगी! तब्बू को भी मुझ पर फ़ख़्रहोगा”
इस से बेहतर जीवन का एक दिन कभी और शायद नहीं मिला
मशीन का चक्का अचानक रुक गया! चाचा तेल के बॉटल उठाने पीछे मुड़े की हाथ से धक्का लगा और दिया सिलायी कपड़ों के एक गट्ठे पर लुढ़क गयी! कपड़ेभू-भू कर जलने लगे! चाचा ने बोतल का पानी उड़ेला, कुर्सी पे रखी तकिया को आग पे पटका ! एक दो कपड़े पूरी तरह जल चुके थे! दुकान में धुआँ भरा गयाथा चाचा को अपनी स्वाद ग्रंथियों में, अपने फेफड़ों में मिट्टी तेल के होने का अहसास हो रहा था। चाचा शटर को खोलने पहुँचे, तो शटर उनसे उठा ही नहीं।
हाँफते हुए उन्होंने तुरंत ने हिम्मत के कुर्ते की ओर देखा! उसे सब जगह से परखा कि कहीं कुछ नुक़सान तो नहीं हुआ है। सब कुछ ठीक था। मरम्मत के कुर्ते में भीबस थोड़ा ही काम बाक़ी था।
अब्दुल चाचा का सिर घूम रहा था, उन्हें याद आया कि– गोलियाँ जो अब तक उनके पेट में रहने चाहिए थी वो अब भी कमीज़ की जेब में ही हैं! चाचा ने गोलीफाँकी तो पीने के लिए पानी नहीं था। चेहरे पे एक अजीब भारीपन लटक रहा था, भौंहों में पसीने के बूँदे जमा हो गए थी ! मरम्मत सिंह के कुर्ते को फ़ाइनल टचदेते देते उनकी सांसें भारी होने लगी! उन्होंने खुद को झटका और नींद से बाहर ले आए! मरम्मत का कुर्ता नहीं सिल पाया तो पैसे लौटाने होंगे! अड्वान्स भी जाचुका है, शकीला को क्या मुँह दिखाऊँगा। बस थोड़ा और दम मियाँ”
हाथ में सुई धागा लिए! बटन टाँकते टाँकते अब्दुल चाचा एकदम स्थिर हो गए।
बिजली लौट आयी थी
पंखा तेज़ गति से घूम रहा था, अब्दुल चाचा के पैर मशीन के पैडल पे जमे हुए थे।
मुर्ग़े की बाग उनके कानों में पड़ी आख़री आवाज़ थी। चश्मे का धागा अब कान में नहीं गढ़ रहा था, कमरपट्टे की अब कोई ज़रूरत नहीं थी, टूटी हुयी कुर्सी काटूटा होना उसकी ख़ामी नहीं थी। शटर के टूटे भाग में से अंदर गिरती सूरज की रोशनी सिलायी मशीन पे चमक रही थी। सूरज ऊपर चढ़ रहा था
सुबह की रोशनी में हिम्मत सिंह और मरम्मत सिंह दोनों अब्दुल चाचा के बेजान शरीर को देखते हुए एकदम चुप थे । धूप का एक टुकड़ा सीधे मक़सूद चाचा की छाती पे गिर रहा था, उनका सफ़ेद कुर्ता तेज चमक रहा था
सिलाए मशीन में फँसा मरम्मत का कुरता, पंखे की तेज हवा में उड़ता, फड़फड़ाता। टेबल पे टिके हाथों में अब भी सुई धागा रुका हुआ था।एक पल के लिए मक़सूद चाचा का चेहरा दिखता फ़िर फड़फड़ाते कुर्ते के पीछे छुपता।टेढ़ा चश्मा उनकी मोटी नाक पे अटका हुआ था।
मुँह खुला का खुला
मरते वक्त आदमी का जितना मुँह खुलता है उसके प्राण लगभग उसी आकर के होते हैं।
कल रात का धुआँ अब भी उनके शरीर से महक रहा था। हिम्मत सिंह, मरम्मत सिंह, बेग बाबू, शिव चरण, अशोक बाबू को साथ देख़ कर लग रहा था की जिस दिन मनुष्यों से उनकी भाषा छीन ली जाएगी उस दिन वे ऐसे ही खड़े रहेंगे।इस त्रासदी के सभी भागीदार थे, सबके गले सूखे हुए थे, बेग बाबू का कुत्ता भीड़ में से जगह ढूँढते हुए दुकान के अंदर पहुँचा और मक़सूद चाचा को सूंघकर अपने सुर में रोने लगा।सबने मिलकर मक़सूद चाचा को उठाया और उनके घर की ओर ले चले। पूरा मोहल्ले की आँखे में कुछ था जो मक़सूद चाचा अपने साथ ले जा रहे थे।
तबस्सुम का ऑटो स्टेशन से घर पहुँचा ही था। वो पूरी भीड़ को देख के सन्न थी, उसके हाथों में अब्बू के लिए नयी गोल्डन फ़्रेम थी।
शकीला बेगम के आँगन में नया शीशम का पलंग चमक रहा था
मक़सूद चाचा को पूरे मोहल्ले ने बहुत सलीके से नए पलंग पर लेटाया, उनकी कसी हुयी मुट्ठियाँ खुली और उनमें से मरम्मत के कुर्ते की क़ाली बटने बाहर गिरी, बस काच का ही काम बाक़ी रह गया था। अब्दुल चाचा ने दोनो कुर्ते सी दिए थे ये बात पूरा मोहल्ला जानता था
शकीला बेगम बदहवास हो कर कर मक़सूद चाचा के बग़ल लेट गयी और उनसे लिपट कर रोने लगी
उनके खुले हुए मुँह को और आँखों को बंद किया
अब्दुल चाचा के छाती में मुँह छुपाकर सिसकियाँ छोड़ने लगे
ऊपर, जामुन की डाल पे बैठे उस प्रवासी पक्षी को वही दिखा जो मक़सूद चाचा की दिली इच्छा थी,
“शकीला बेगम के साथ नए पलंग पे सोने की दिली इच्छा!
बेग बाबू के कानों में वही बात गूंज रही थी जो उन्होंने पिछली सुबह मक़सूद चाचा से साझा की थी
“ये हेरॉन पक्षी है, इसका दिखना शुभ माना जाता है प्राचीन मान्यता के हिसाब से इनका दिखना शुभ होता है! नयी सम्भावनाएँ सामने आती हैं! और ये जिसजगह जाते हैं वहाँ से अपने साथ कुछ लेकर भी जाते हैं!”