स्मृतियाँ
बूढ़े पिता की कमज़ोर होती स्मृति से परेशान होता बेटा एक शाम अनजान बूढ़े आदमी से मिलता है। स्वप्न और स्मृतियाँ एक दूसरे में मिल कर तीसरा यथार्थ रचने लगती हैं।
“सुबह से ही तू चुप-चुप है!” प्रकाश का पूछा, दिलीप ने सुना नहीं, वो कहीं और था।
शाम में ऑफ़िस से लौटते वक़्त दोनो दोस्त पुराने पुल पर कुछ देर रुकते थे। दिलीप को इस छोटे शहर में आए कुछ ही दिन बीते थे।
सामने सोयी झील के ठन्डे पानी में डूबती शाम का रंग धूमिल हो रहा था। हल्की हलचल करते हुए दो नावें किनारे की और बढ़ चली जैसे दो सहेलियाँ एक दिशा में आगे बढ़ रही हैं| नावों में लटके लैम्प से निकले आलोक के चहबच्चे, पानी पर तैरते मद्धम रोशनी के टुकड़े बन कर पुल तक पहुँचते।
किसी लोक गीत की धुन गुनगुनाते, नाव में बैठे मछुआरे जाल समेटते हुए आगे बढ़ रहे थे।
किनारे, कुबढ़ी खड़ी झोपड़ियों से चूल्हे का उठता धुआं उप्पर फैले सांवले आसमान में एक बेतुका आकार ले कर ओझल होता दिखता, और चूल्हे पे पकती मछली की महक सौंधी हवा में मिलती जाती।
एकदम नहीं के बराबर उजाले में साइकल का टायर लेकर भागते बच्चों की हँसी पूरे इलाके में गूँजती...
पर दिलीप तक सिर्फ़ टूटी आवाज़ें पहुँच रही थी। दिलीप और इन दृश्यों के बीच एक खियायी हुयी चादर थी।
इलाक़े में पसरे अधूरे शून्य में भागते चिल्लाते बच्चों की तेज़ गूँज, पानी में उठते-डूबते चप्पू की धीमी चाप जो शायद झील के किनारे तक लहर बन के जाती थी, घर लौटते बगुलों काकलरव, बिजली के तारों पर कतारबद्ध बैठी मैनाओं का साँवला रंग लगभग अदृश्य था बस सरसों रंग की दर्जनों चोंच का आभास। इन सब के बीच, इन सब से दूर अलग-थलग आती-जाती स्मृतियों से लड़ते बूढ़े पिता के चिढ़-चिढ़े स्वर में एक अनमना शोर था।
दिलीप अनगिनत ख़यालों से जूझ रहा था पर किसी एक का भी साफ़ चेहरा दिखायी नहीं दिया।
प्रकाश ने दिलीप के कंधो पर धीरे से हाथ रखा, दिलीप ने उसकी तरफ़ देखा ।
“तू ठीक है ना?”
दिलीप ने अपना सर धीरे से हिलाते हुए कहा “हाँ... क्यों? कुछ नहीं”, जिसका “नहीं” प्रकाश तक पहुँचते-पहुँचते खो गया।
“बता ना! ऑफ़िस में भी सब रहे थे की दिलीप कैसे इतना चुप-चुप है?”
“ऑफ़िस में!”
“और नहीं तो क्या?”
दिलीप ने एक लम्बी साँस बाहर छोड़ी जिसका भार नीचे बहती झील तक पहुँचा होगा, अब लहरें किनारे से नाव की तरफ़ लौटी होंगी, और नाव से किनारे तक आती लहरों से मिलकर एकबहते शून्य में बदल गयी होंगी।
“छोड़ यार सब ठीक है!” दिलीप ने बात टालते हुए कहा।
एक क्षण के लिए जो चुप हुयी थी वही सब आवाज़ें लौटने लगी। दिलीप को लगा की उसे यूँ ही बोलना शुरू कर देना चाहिए एकदम अचानक जैसे साँझ से नदी के किनारे बैठा बगुलासहसा एक उड़ान भर ले। दिलीप के शब्द जितने प्रकाश के सुनने के लिए नहीं थे उतने दिलीप के बोलने के लिए थे। कोई सुने या ना सुने, कोई जवाब दे या नहीं, इन सब आशाओं से परेवो बस बोलना चाह रहा था, जैसे बोलना कभी-कभी साँस लेने और छोड़ने जितना ज़रूरी होता है।
“पापा का बचपन यहीं बीता था, इसलिए सोचा की यहाँ शिफ़्ट हो जाऊँ तो उन्हें अच्छा लगेगा... पर एक-दो दिन के बाद फिर वही सब शुरू”
“क्या हुआ अंकल को!”
“अभी तो ठीक हैं... पर कभी-कभी मुझसे ही पूछ लेते हैं की दिलीप कहाँ है, कब आएगा? पता नहीं कैसे संभालुँगा? एकदम चिढ़चिढ़ा जाते हैं बिना बात के... कहते हैं ये कहाँ ले आया तूमुझे, बेकार का घर है, नींद नहीं आती, गद्दा बहुत कड़क है, मैंने नया नरम गद्दा लाकर दिया तो फ़िर वही, नींद नहीं आती, गद्दा बहुत नरम है, अंदर ही धँस जाऊँगा...।”
गाढ़े नीले शाम के आसमान में दो सफ़ेद बगुले उड़ते हुए दिखे, वे ओझल होते-होते दो सफ़ेद धब्बे बन गए। स्मृतियाँ भी पिता के लिए अनगिनत धब्बों जैसी हो गयी हैं, नारंगी, लाल, पीला, मैला, नीला... उन्हें बीता समय रंगों में याद है। मैली दीवार पर पिघले मोम के छीटों जैसा जिसे तुरंत ऊँगली से पोछा जा सकता है, पर सूख जाए तो खरोचने के बाद छीटें धब्बे बन जाते हैं।
नाव किनारे पहुँच चुकी थी, मछुआरों ने नाव से लैम्प उतारा, एक बुझा दिया और दूसरा वहाँ टाँग दिया जहाँ बच्चे खेल रहे थे। लैम्प के धीमें आलोक में इधर-उधर एक-साथ भागते बच्चे रोशनी के गुच्छे बन गए, जैसे जुगनू हों
दिलीप कुछ देर चुप रहता, फिर अनायास ही बोलने लगता।
“कभी बाहर ले जाता हूँ साथ की भई! घूमा लाऊँ, मन बहल जाएगा तो एकदम अनमने से होते हैं जैसे मैं कोई अनजान शहर ले आया हूँ, और नहीं तो कभी-कभी ख़ुद ही अकेले सुबह-सुबह टहलने निकल जाते हैं फिर हर बिल्डिंग के सामने के सामने रुक कर बताते हैं कि यहाँ पुरानी टॉकीज़ थी, वहाँ बच्चा जेल थी, अस्पताल और ना जाने क्या क्या?”
दिलीप चुप हुआ,... “घबरा मत, इलाज चल रहा है ना!” पर प्रकाश की बात काटते हुए दिलीप फ़िर बोलने लगा
“और एक दिन की बात नहीं है यार लगभग रोज़ का हो गया है, अभी परसों रात में ११ बजे बोले की भूख लगी है, घर में कुछ था नहीं, फिर भी मैंने पूछा की क्या खाओगे, तो बोले की फूलगोभी”
फिर उतनी रात में बड़ी मुश्किल से फूल गोभी ढूँढा, बाज़ार-वाज़ार तो सब बंद हो गया था। पड़ोसी के घर से माँगी, घर आया, पकाया, और जब थाली परसी तो कहने लगे ये घास फूसकौन खाता है? मैं चिकन खाऊँगा और वो भी ऐसा वैसा नहीं चिकन रारा“
“पर तू तो नहीं खाता” प्रकाश ने बीच में टोका
अरे वही तो यार, खाते वो भी नहीं है पर उस दिन कहीं कुछ देख लिया होगा टी.वी. पर रेसिपी वग़ैरह, हो गयी होगी इच्छा” और ये कहकर गोभी की सब्ज़ी कटोरी से उठा कर टेबल पर उलट दी।
“मैं ग़ुस्से में उठ कर बाहर निकल आया, जब लौटा तो बढ़िया डकार ले रहे थे।
“सब्ज़ी बढ़िया बनी है, गरम है, तू भी खा ले” ऐसा बोले फिर ख़ुद से टेबल साफ़ किया, थाली माँजी और सोने चले गए। मैं अंदर देखने गया की ठीक से ओढ़े-वोढ़े हैं कि नहीं तो… तो बैठके रो रहे थे। उनके पैर बहुत दुखते हैं पर बताते नहीं हैं, और दबवाते भी नहीं हैं।
दिन भर बैठे रहते हैं ना तो पैरों में सूजन हो जाती है फिर मैंने पानी गरम किया, नमक डाला, फिर बाजु में ही बैठ गया, धीरे से उनका सर मेरे कंधो पर आकर रुका फिर टिके-टिके ही सोगए।”
दिलीप के चेहरे पर आयी हल्की मुस्कुराहट डूबते सूरज के साथ ओझल हो गयी।
“अच्छा नहीं लगता यार पापा को ऐसे देख कर… जितना हो सकता है कर रहा हूँ... ठीक कर रहा हूँ ना?” ये सवाल जितना प्रकाश से नहीं पूछा गया था उतना दिलीप ने ख़ुद से पूछा था।
प्रकाश जो अब तक चुप खड़ा था “तू ना एक काम कर… शादी कर ले!”
दिलीप चिढ़ा हुआ मुँह लेकर प्रकाश की तरफ़ घूमा, प्रकाश हंस रहा था।
दोनो हँसने लगे। “चल चलते हैं, लेट हो रहा है”
“तू चल, मैं कुछ देर रुकता हूँ फिर निकलूँगा“
“क्या करेगा?”
“अरे तू निकल, मैं आता हूँ।”
प्रकाश कुछ क्षण चुप रहा
“चल ठीक है, अब अंकल की आगे कभी इच्छा हो तो बताना, मैं ख़ुद अपने हाथ से बना के खिलाऊँगा, रारा मसाला”
प्रकाश अपनी स्कूटर चालू कर के निकल गया फिर अचानक रुका
“भूलना मत कल मीटिंग है सुबह ८ बजे“
“हम्म याद रहेगा, तू जा”
प्रकाश के जाते ही दिलीप वापस झील के किनारे बनी झोपड़ियों को देखने लगा। उसने एक सिगरेट जलाई, दायीं ओर सड़क पर एक बूढ़ा आदमी घोंघे सी धीमी गति से आगे बढ़तादिखा, वो लकड़ी टेक-टेककर कुछ क़दम चलता फ़िर रुकता फ़िर चलता। लकड़ी के टेकने की आवाज़ नज़दीक आते जा रही थी।
मछुआरों का परिवार, झोपड़ी के बाहर अब साथ बैठ के खाना खा रहा था, उन्होंने पास में अलाव जला रखी थी। अलाव की चिंगारियों से चिटचिट कर छीटें उप्पर उठते और नीलेआसमान में खोने लगते।
“ठंड के दिनों में पापा एक तसले में अलाव जलाया करते थे, अपनी हथेलियों को गर्म करके मेरी पीठ पर हाथ रखते थे, फिर पेट पर, गले पर और फिर चेहरे पर, हमेशा ऑफ़िस से लौटनेके बाद उनकी हथेलियों पर स्याही के निशान होते थे। आग के उप्पर तैरती उनकी हथेलियाँ, लाल दिखती थी,जैसे ऊँगली की पोरों लार छोटे छोटे लाल-गुलाबी बल्ब जल रहे हों! बुझते कोयलों पर पानी के छीटें फेंकने से उठने वाली आवाज़ इतनी रहस्यमयी होती थी, जैसे बुझने के पहले एक तसले में रखे अंगारों ने एक आख़री लम्बी साँस अंदर खींची हो ! अक्सर उनकी गोद में ही सो जाया करता था।
जब यहाँ शिफ़्ट हुए तब रूम हीटर को देख के सहसा चिढ़ गए थे, क्या वो मुझसे उम्मीद कर रहे थे की मैं भी तसले में आग जलाकर अपनी हथेलियाँ गरम करके उनके पंजे, हथेली, पीठ और पेट सेकूँगा?”
आदमी कैसे अपना जिया हुआ सब भूलने लगता है?
ये कैसे होता है कि जब पापा स्वप्न, स्मृति और अभी जो घट रहा है उसके बीच एक साफ़ सीधी लकीर खींचते खींचते एक अंत-हीन वृत्त खींचने लगते हैं जिसमें सब मिल कर एक हो जाता है।
जब अस्पताल से घर लौटे थे तो कमरे में आते ही तेज़ रोशनी से चिढ़कर अपनी आँखें कस कर मूँद ली थी,
“यहाँ परदा था ना एक… नीला?”
पर्दे का वहाँ होना याद था, रंग नीला था, यह याद करने में ज़्यादा समय लगा था।
“हाँ पापा, धोकर डाला है”
“अभी कोई चादर डाल दे, उजाला एकदम चुभता हैं आँख में”
“आपको याद है नीला परदा था यहाँ?” दिलीप ने पूछा।
“क्यों भूलूँगा, सब याद है, अभी अस्पताल से आया हूँ कमरा नम्बर था...११२, डबल बेडवाला, टीवी ख़राब था”
“अच्छा! और क्या-क्या याद है?”
पापा ज़ोर देकर सोचने लगे, उप्पर टिमटिमाते बल्ब को देखते रहे अचानक नीचे झुक कर अपनी पैंट उप्पर मोड़ी और इस तरह अपने पैर हवा में उठा लिया जैसे अंदर, घर की फ़र्श में झीलकी एक शांत लहर बहते हुए आ गयी हो।
“कल मैं छोटी झील में पैर डुबाकर बैठा था” वो रुके, चुप हुए, स्मृतियों से उलझते रहे, एक दिशा में लगातार अपनी आखें गढ़ाए बैठे रहे फिर अचानक बोले “पानी मैला था, काई थी, पर हल्का-हल्का दिखता था कि नारंगी मछलियों का एक झुंड मेरे पैरों को छूकर निकला था, फिर लौट कर आया और वहीं रहा... पैरों के पास”
“और कोई था आपके साथ?”
“लड़का था मेरा, मेरा बेटा”
“क्या पहना था उसने?”
“कत्थई चैक का शर्ट, हाफ़ पैंट और काले जूते”
“अच्छा…. मैं कौन हूँ?”
एक क्षण के लिए उन्होंने मेरी पहनी चेक की नीली शर्ट को देखा फिर ऐसे नज़रें नीचे कर ली जैसे कुछ सुना ही ना हो, मैंने यही सवाल मैंने ऊँची आवाज़ में दोहराया। वो इधर-उधर देखने लगे जैसे तकलीफ़ में हो, मेरे कहे को अनसुना कर रहे हों।
मुझे ध्यान से देखते रहे फिर अचानक अपने पैरों को देखने लगे, पैरों में सूजन थी।
“दुखते हैं?”
उन्होंने बच्चों जैसे हाँ में सर हिलाया,
“दबा दूँ?”
उन्होंने बच्चों जैसे नहीं में सिर हिलाया।
मैंने एक बाल्टी में पानी गरम कर के उनके सामने रख दिया, उसमें थोड़ा नमक डाल दिया। बहुत देर तक पानी में पैर डाल कर बैठे रहे, बीच-बीच में हँसते भी थे जैसे अंदर गरम पानी मेंतैरते दो पैरों को ठंडी मछलियाँ छूकर चली जाती हैं, फिर लौट आती हैं।
दिलीप की इन स्मृतियों को अचानक किसी ने झकझोर दिया, झुर्री से लदे हाथों ने दिलीप की कॉलर पकड़ कर पीछे खींचा, सिगरेट दिलीप के हाथ से छूटी और रेलिंग से टकरायी, चिंगारी की छोटी छोटी रोशनियाँ जो नीचे झील तक पहुँचने के लिए निकली थी, बीच में ही ओझल हो गयी।
एक बूढ़ा आदमी दिलीप को कसकर पकड़े हुए था।
“चल, घर चल! तेरी थाली रखी है, चल घर अभी” वो आदमी चीख़ने लगा
“अभी चल..... चल!”
दिलीप ने पीछे पलट कर उस आदमी को देखने की कोशिश की, सब कुछ उसे बटें हुए धुंधले हिस्सों में दिखता जैसे किसी और की भूली हुयी यादों को वो अब जी रहा है।
सफ़ेद हल्की दाढ़ी, मोटी फ़्रेम का चश्मा, ओवर कोट की कॉलर, लकड़ी की बटन, घड़ी, गर्दन, हाथ, हथेलियाँ, झुर्रियाँ, उम्र उसकी खुरदरी चमड़ी से वही महक रिस रही थी जो दिलीप को तब महसूस होती थी जब वो पापा के आस पास होता था, पापा का पूरा कमरा उसी महक से भरा रहता था।
दिलीप पूरा ज़ोर लगा कर पीछ घूमा, उसने अपने दोनो हाथों से पूरा दम लगाकर उस बूढ़े आदमी को छाती पर धक्का मारा। अगले ही पल बूढ़े आदमी के दोनों हाथ हवा में थे, उसका चश्मा और लकड़ी अलग-अलग दिशा में उछले, और पीछे गिरने के भय से उसकी पुतलियाँ बड़ी हो गयी थी। वो नीचे गिरा और वहीं पड़ा रहा।
रात के अंधेरे में सब कुछ गतिहीन है
क़स्बे में रहता हर घर गहरी नींद में सोया है। सूखी हवा का एक तेज़ भँवर पुराने पेड़ की खोह से निकला और दूसरे पेड़ की खोह में जाकर छुप गया। टीन-टप्पर, खपरे, छत उड़ कर लापताहो गए और फिर अचानक सन्नाटा पसर गया।
दिलीप कुछ देर वहीं खड़ा रहा, हथप्रभ सा।
बूढ़े आदमी के गिरते ही सब कुछ पहले जैसा शांत हो गया। मछुआरे का परिवार सो चुका था। सिर्फ़ नीचे थमी झील का हल्का शोर था और उप्पर छींद की तीखी टहनियों पर पंखों कीफड़फड़ाहट। दिलीप ने पसीने में सनी अपनी हथेलियों को अपनी शर्ट से रगड़ कर पोंछा, और मोटर साइकल पर बैठते हुए बूढ़े आदमी की तरफ़ एक आख़री बार देखा। बूढ़े आदमी की बड़ी-बड़ी पुतलियाँ स्थिर थी। खम्बे में लगे बल्ब की मैली धुँधली रोशनी में उसका चेहरा साफ़-साफ़ नहीं दिख रहा था। बची-कूची उसकी छाती का साँस लेने के लिए उठना गिरना गतिहीन था। दिलीप की छाती पर एक बोझ बैठ गया। बूढ़े आदमी की बाहर निकली हुइ बड़ी आँखें दिलीप पर गढ़ी हुयी थी, दिलीप भी उन आँखों को एकटक देख रहा था, आँख के नीचे गहरे काले गड्ढे थे।
कुछ देर अंधेरे में रहने के बाद हमें धीरे-धीरे चीज़ों का आभास होने लगता है। बंद अंधेरे कमरे में रखी कुर्सी और मेज़ का आकार समझ आने लगता है। हम उसे धीरे-धीरे देख पाते हैं, उसकी रंगत, उसकी बनावट
अंधेरे में रोशनी हम ख़ुद ही ले आते हैं, मनगढ़ंत ही सही पर हम अपनी तसल्ली के लिए कुछ तो उकेर ही लेते हैं।
गहरे काले गड्ढे झुर्रियों से सने थे, ऐसे की अगर उनमें ऊँगली डुबोयी जाए तो लकीरों का चिपचिपा जाला उँगलियों की पोरों पर चिपक कर बाहर आने लगे। ठुड्डी पे जाकर तिकोना होता चौकोर मुँह, हल्की मूँछ और पिचके हुए गाल। दिलीप की आँखें उस शिथिल शरीर में हलचल ढूँढ रही थी। पर वो स्थिर था, कबाड़ में फेंक दिए गए उन पुतलों के जैसा जो कभी कपड़ोंकी दुकानों में रखे जाते हैं।
शान्त नीले आसमान और थमे होने का छलावा करती झील के बीच जो सूनापन पसरा था, वो बूढ़ा आदमी उसी के बीच कहीं क्षितिज पर लटके एक विचित्र तरीक़े से स्थिर पेंडुलम जैसा पड़ा था जो ख़ुद की इच्छा से रुक गया हो।
रुआंसे से एक पहाड़ का टुकड़ा आकर दिलीप के फेफड़ों के बीच बैठ गया। पसीने की बूँदें उसकी गर्दन पर उतर आयी थी। उसे अपनी छाती में एक अजीब भारीपन महसूस हुआ।
अचानक बूढ़े आदमी ने पलक झपकी, और अपनी कलाइयाँ हिलायी। दिलीप ने क्षण भर को आँखें बंद की और पानी से लदे काले बादल जितनी भारी साँस बाहर छोड़ दी।
मोटर साइकल की किक ज़ोर से मारी और तेज़ रफ़्तार में वहाँ से निकल गया। गाड़ी का शोर इलाक़े में पसरी सन्नाटे की चादर को चीरता हुआ ओझल हो गया। हैड लाइट की रोशनी में सामने उड़ते सैकड़ों सफ़ेद-चमकीले कीड़े दिलीप की छाती से आ टकराते, उसके चेहरे पर वेग से टकराते, उड़ जाते। नीचे पसरी लम्बी काली सड़क ही साफ़ दिखती थी, किनारे खड़े अनगिनत रोशनी के खम्बों से गिरते पीले उजाले में बाक़ी सब धुँधला था। दिलीप आगे बढ़े जा रहा था, पर उसकी आँखें अभी भी बीते समय में उस धब्बे पे टिकी थी जिसकी रोशनी अभी स्मृति नहीं बनी थी, रोशनी एक गर्म आँच थी।
एक बीमार छोटे बच्चे की तरह वो बूढ़ा आदमी दिलीप की तरफ़ देख रहा था। खुली आँखें लिए वो बस शांत पड़ा हुआ था। दीवार में आधे चिपके पीले पर्चे तेज़ हवा में फड़फड़ाते हैं वैसे ही वो शांत दृश्य दिलीप के भीतर शोर कर रहा था। जैसे उसे कोई भीतर से कुरेद रहा हो। वो बार-बार ख़ुद को मना रहा था कि यह उसकी ग़लती नहीं थी “मैंने तो बस ख़ुद को बचाया है।”
पर वो जितनी बार ये दोहरा रहा था उसे लगता की भीतर लिसलिसे,गरम डामर से भरा एक ड्रम है जिसमें डूबती एक गौर्रैय्या दम तोड़ रही है, लगातार फड़-फड़ा रही है।
दिलीप ने अचानक अपनी गाड़ी घूमा ली, वो कुछ ही देर में पुल पर पहुँच गया।
दिलीप जहाँ पहले खड़ा हुआ था, बूढ़ा आदमी वहीं पुल की रेलिंग से पीठ टिका कर बैठा था। उसकी गर्दन लकड़ी को पकड़े हुए दोनो हाथों के बीच लटकी हुयी थी। दिलीप रुक कर, उसे थोड़ी दूरी से देखता रहा।
बूढ़े आदमी के जूते चमक रहे थे, उन पर कुछ धूल ज़रूर जमी हुइ थी पर वो सामने खड़े खम्बे की मैली धुँधली रोशनी में भी चमक रहे थे। उसकी घड़ी का गोल्डन डायल और उसका ओवरकोट। आदमी धीरे से घुटनो के बल आगे बढ़ा और पुल के फ़ुटपाथ पर अपनी हथेलियाँ धीरे-धीरे रख कर अपना चश्मा ढूँडने लगा। दिलीप ने उसका चश्मा उठाया।
काँच पर हल्की सी खरोंच थी, पर टूटा नहीं था।
बूढ़े आदमी के हाथ में दो टूटी हुयी बटन आयी उसने उठा कर अपनी जेब में रख ली।
दिलीप अब भी थोड़ा दूर खड़ा था।
“उसने हाथ बढ़ा कर कहा “आपका चश्मा”
“कौन?” बूढ़ा आदमी अब भी घुटनो के बल था।
बूढ़े का “कौन” सुनने में दिलीप को अपने पिता का पूछा हुआ “कौन” सुनायी दिया।
आदमी नें दिलीप की तरफ़ हाथ बढ़ाया, दिलीप ने आगे बढ़कर उस आदमी का हाथ पकड़ा। बूढ़े आदमी की हथेलियाँ गरम थी, नज़दीक पहुँच कर दिलीप ने जाना की उसके सामने एक बहुत ही कमज़ोर आदमी खड़ा हुआ है जिसका चेहरा लकीरों से भरा पड़ा हैं, लकीरों में ना जाने कितने बरस छुपे हैं, और कितनी ही अनकही, अनसुनि उदास कहानियाँ गड्ढों में धंसी आँखों में रहती हैं! बूढ़ा आदमी उस उम्र में था जब शरीर की सबसे विश्वसनीय साथी, पेड़ की शाख़ से निकली लकड़ी बन जाती है।
“ठीक हैं आप? आप ऐसे अचानक पीछे से आए और मुझे….”
दिलीप को बूढ़े आदमी के सिर पर ज़रा सी खरोंच दिखी, उसके बालों पर धूल थी।वो अपना कोट झटक रहा था। दिलीप, उसे अपना रुमाल देखर एक अपराधी सा चुप खड़ा हो गया।
आदमी ने चश्मा पहनने के बाद दिलीप को ध्यान से देखा, उसने अपनी हथेलियाँ दिलीप की तरफ़ बढ़ायी। गाढ़ी लकीरें से सनी काँपती हथेलियों में दो कत्थई बटन दिखायी दिए।
दिलीप ने अपनी शर्ट की ओर देखा, उप्पर की दो बटन टूटी हुयी थी। दिलीप ने दोनों बटन बूढ़े आदमी की हथेलियों से अपनी हथेली में ली और जेब में रख ली।
“ठीक हैं आप! क्या हो गया था आपको?”
उस आदमीं ने दिलीप को देखा “कुछ नहीं, ग़लती मेरी थी, मुझे माफ़ कर दीजिए”
“कुछ नहीं! क्या मतलब कुछ नहीं”
उस आदमी ने अपने कोट में से एक सिगरेट बॉक्स निकाला, उस पर चाँदी का कवर था। एक सिगरेट उसने दिलीप की तरफ़ बढ़ाई। दिलीप ग़ौर से सिगरेट देखने लगा।
“यहाँ की नहीं है, बाहर से मंगवाता हूँ।”
दोनों ने सिगरेट जलायी और थोड़ी देर यूँ ही खड़े रहे।
यह ख़ाली समय दो अनजान लोगों के लिए मुश्किल भी होता है और ज़रूरी भी। बातें कुछ नहीं होती पर थोड़ा समय एक-दूसरे के साथ बीत जाता है उसे समझने की कोशिश में।
बूढ़े आदमी को लगा की उसे कुछ कहना चाहिए। दिलीप को भी।
“आप यहीं रहते हैं?” बूढ़े आदमी ने पहले पूछा।
“जी, अभी कुछ दिनों पहले ही आया हूँ“
“आप…?”
“मैं हर जगह रहने की कोशिश करता हूँ पर रह नहीं पाता” बूढ़ा आदमी मंद सा मुस्कुराया जैसे आप त्रासदी के इतने आदी हो जाते हैं कि उसके बीच कहदे होकर मुस्कुरा भी सकते हैं! बूढ़ा फिर एक क्षण रुक कर बोला।
“यहीं पास में ही रहता हूँ। कभी-कभी यहाँ चला आता हूँ यहाँ ऐसे ही टहलने“
उसने अपनी सिगरेटसे दो-तीन कश खीचें।
“जो मैंने आपके साथ किया…. ऐसा कभी-कभी ही हुआ है कि अपने आप को रोक ही नहीं पाया, इसलिए माफ़ी माँगता हूँ। अंदर ऐसा लगता है की जो भी आदमी वहाँ पुल पर खड़ा है वो अब कूद जाएगा और मैं उसे रोक लूँ। उसे बचा लूँ”
बूढ़ा आदमी ये भाँप गया कि दिलीप अभी भी उसकी बातों में मतलब ढूँडने की कोशिश कर रहा था। मैंने कहा था “आप नहीं समझेंगे, सोचेंगे की मैं कोई पागल हूँ“
“पर ऐसा क्यों करते हैं आप? कोई तो वजह होगी?”
“पता नहीं! मैं आप से फिर माफ़ी माँगता हूँ!”
“आप ठीक तो हैं ना, ज़्यादा चोट तो नहीं लगी?”
आदमी ने धीमे से नहीं में सर हिलाया बच्चों जैसे।
दोनों ने बची हुइ सिगरेट झील को सुनते हुए बिना बातों के पी।
“मैं चलता हूँ अब! ध्यान रखिए आप“
गाड़ी पर बैठते ही दिलीप को याद आया
“आप चीख़ रहे थे की घर चल, थाली लगी है, अभी चल”
ये सुनते ही बूढ़ा आदमी उसी जगह अचानक बैठा गया जहाँ वो पहले बैठा था, उसने अपना मुँह दोनो हाथों में छिपा लिया। आँसुओं से रहित चुप सा रुदन जिसमें इंसान सारे दुःख, सारी यातनाएँ अंदर समेटने की कोशिश करता है और बाहर सिर्फ़ बोझ में लदी हुइ सांसें ही निकल पाती है, जिसमें काई से सनी नदी-सी नीली स्मृतियाँ भी होती हैं, सब अंदर ही पिघलने लगता है मोम की तरह।
दिलीप यह रोना जानता था, पापा भी ऐसे ही रोने लगते थे।
दिलीप उस आदमी के पास जाकर बैठ गया और धीरे से उसके कंधे पे अपना हाथ रख दिया।
हाथ रखते ही एक गुनगुनी बूँद स्मृतिपटल से निकली और आखों से होते हुए बहुत हौले से बाहर निकल आयी। सूखी निर्जन चट्टान पर कोई एक धार का ग़र्म सोता बहने लगा और चेहरे परजमी कड़क परतें एक-एक करके पिघलने लगी।
“मेरा बेटा था... आख़री बार यहीं इसी पूल पर देखा गया था।”
दिलीप चुप रहा।
“तुम्हारी ही उम्र का था….
रुई के पहाड़ से बना एक मौन दोनों के बीच आकर दोनों के साथ बैठ गया, कुछ देर वहीं बैठा, फिर कब उठा और जाकर मछुआरे के सोए हुए परिवार के बग़ल में जाकर लेट गया, इसका आभास ही नहीं हुआ।
“वो अपना कारोबार शुरू करना चाहता था, कुछ पैसों की ज़रूरत थी! मैं उसे मना नहीं करता, पर बस इतना चाहता था की पहले ख़ुद कोशिश करे। उस दिन, शाम में जब हम सब खाने बैठे ही थे, उसने खाते-खाते फिर वही पैसे की बात शुरू कर दी... तो मैंने उसे डाँट दिया कि “पहले खाना तो खा ले” वह लगी हुयी थाली छोड़कर उठा और भूखा ही बाहर चला आया। एक-दो दिन तो मैं सोचते रहा की कहीं किसी दोस्त के घर पर होगा, पर बाद में मछुआरों से पता लगा कि उसे आख़री बार यहीं देखा गया था।”
“वो मिला नहीं?”
“नहीं”
“मेरा मतलब अगर वो यहाँ से नीचे….”
“नहीं, कुछ नहीं, कोई नहीं मिला। यही बात तो ज़्यादा सालती है, कहीं कोई अता-पता नहीं, उसे ऐसे भूखे पेट तो नहीं चले जाना चाहिए था ना? मुझे बस एक बार पता चल जाए की वो है, कहीं है, दूर-पास मायने नहीं रखता मैं बस यही चाहता हूँ। बस कहीं से कोई ख़बर आ जाए, मुझे मालूम है की वो है, कहीं तो है।
बूढ़ा आदमी कुछ देर शांत बैठा रहा।
“जब भी इस पुल से गुज़रता हूँ तो मुझे पता नहीं क्या हो जाता है, मुझे लगता है की मेरा बेटा अब कूदने वाला है और उसने खाना नहीं खाया है। मैं उसे घर ले जाऊँगा और उसे खाना खिलाऊँगा। शायद मैं बीमार हूँ पता नहीं, पर कुछ तो है अंदर।“ बूढ़ा आदमी लम्बे समय के लिए चुप रहा...
“मुझे माफ़ करना बेटा, तुम घर जाओ रात हो गयी है।”
“छोड़ देता हूँ आपको।” दिलीप ने धीमी आवाज़ में कहा।
“अरे नहीं-नहीं... मैं चला जाऊँगा, अँधेरा हो गया है बेटा! तुम जाओ”
बूढ़ा आदमी धीरे से उठा और उसने रुमाल वापस करने के लिए हाथ बढ़ाया।
“आप रखिए, इस बहाने शायद आपको याद रहूँगा”
उसने अपनी जेब से सिल्वर बॉक्स निकाला और एक सिगरेट निकाल कर अपने पास रख ली।
सिल्वर बॉक्स दिलीप की तरफ़ बढ़ाकर उसने कहा “इस बहाने शायद मैं भी याद रहूँगा“
दिलीप को याद है, पुल के उस पार आगे सड़क पर, बीतते समय और दूरी के बीच वो कहीं ओझल हो गया।
दिलीप घर पहुँचा, रात हो गयी थी।
पिता के कमरे में हमेशा से एक सौंधी सी महक पसरी रहती थी। पिता जहाँ-जहाँ जाते थे वो गंध उनके साथ-साथ जाती थी। पर पापा कहीं जाते नहीं थे, इसलिए वह कमरा उनकी महक से भर गया था।
कमरे की गंध से उसे अब बूढ़े आदमी का ध्यान आया।
महक से गूँथी हुइ छवियाँ बिन बुलाए दिलीप के सामने तैरने लगी, जिसमें सरकारी इमारतों की सीढ़न खायी दीवारें थी, तंबाखु खाकर आपस में हथेलियाँ ठोकने के बाद हवा में लटके रहजाने वाला पीला बुरादा और जर्जर नंगी पीठ पर कमज़ोर रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द उठते मस्से।
अचानक एक किताब नीचे गिरी।
पिता खिड़की के सामने बैठ, अपनी आराम कुर्सी पर सो रहे थे। दिलीप ने पीला बल्ब बंद कर दिया और एक चादर पिता को उढ़ा दी, बाहर आकर वो कपड़े बदलने लगा।
“कौन?” पिता ने पूछा
“मैं हूँ पापा!“
“मैं कौन?”
दिलीप कमरे में आया और उसने बल्ब चालू किया। दिलीप के पिता बस उसे देखते रहे और हंस पड़े
“याद है याद है, मेरा बेटा है तू।”
दिलीप भी मुस्कुरा दिया और बाहर आ गया।
“पापा! खाना खा लिया ना आपने?”
कमरे से कोई आवाज़ नहीं आयी,
“पापा!”
“नहीं, कहाँ? तेरी राह देखते-देखते सो गया था।”
“अब सोओगे नहीं फिर रात में”
“दिन भर तो सोता हूँ गोली खा-खा कर!” दिलीप बर्तनों की रैक से थाली निकाल रहा था, पिता को सुनकर वो रुक गया,
“आज सपने में तेरी मम्मी दिखी, कहीं कोई बड़े शहर में हम दोनो घूम रहे थे, बड़ी-बड़ी इमारतें, लम्बी कारें, ब्रिज और ना जाने क्या क्या! मैंने झोला टाँगा था, तेरी मम्मी कुछ सामान ख़रीद रही थी, अच्छा एक लम्बा-चौड़ा लड़का ६ फ़ीट का रहा होगा, सूट-बूट में था, हाथ में एक ब्रिफकेस था उसके, आया और टकरा गया।
“देख के नहीं चल सकते आप?” मैं उसको घूरता रहा
“थोड़ी देर तो वो देखता रहा, चुप, और फिर एकदम रोने लगा रे!”
तेरी मम्मी ने उसे चुप करवाया, पूछा “भूख लगी है, बेटा?”
“फिर तेरी मम्मी और मैं बीच बाज़ार में नीचे बैठ गए और उसको खाना खिलाने लगे।’’
दिलीप ये सुन कर पिता के कमरे तक पहुँचा, वो करवट बदल कर फिर सो चुके थे।
दरवाज़े की आड़ से दिलीप उन्हें देखता रहा, पापा उसे एकदम बच्चे जैसे लगे, दोनो हाथ छाती पर थे, लम्बी साँसों की आवाज़ टेबल-फ़ैन की कम्पन में खो गयी थी, एक पैर घुटने से मुड़ा हुआ था और एक लम्बा, सीधा जैसे कहीं दौड़ रहे हो नींद में, “क्या ऐसा हो सकता है की पापा को अपनी बीती ज़िंदगी याद ना रहें पर उन्हें नींद में देखे गए सपने याद रहें, क्या ऐसी अवस्था आती हैं जहाँ स्वप्न और सच मिलकर एक हो जाते है? क्या कुछ लोग जो अब खो गए हैं वे किसी और के स्वप्न में जीवित रहते हों”........ एक-एक कर के कमरों में जलते बल्ब की रोशनी अंधेरे में खो गयी।
अगली सुबह जब दिलीप उठा तो पापा दिलीप के उठने का इंतेज़ार कर रहे थे। दिलीप हाथ-मुँह धोकर बाहर आया और ऑफ़िस के कपड़े पहनने लगा।
“कल पंखा मेरे मुँह की तरफ़ तूने किया था?”
“हाँ! क्यों?”
“क्या ज़रूरत थी, नाक बह रही है सुबह से!”
“पर कम्बल भी तो उढ़ाया था! और टेबल-फ़ैन लगाने का क्या फ़ायदा जब आपका मुँह एक तरफ़ हो और पंखे का मुँह दूसरी तरफ़“
“मुझे हवा नहीं चाहिए होती, पंखे की आवाज़ से नींद आती है... और इतनी सुबह से कहाँ जा रहे हो?”
“मीटिंग है पापा, लेट हो गया हूँ!”
“और मत सो रात में जल्दी! खाना?”
बाहर ही खा लूँगा, दोपहर में कहीं“
“नहीं, खाना खा कर जा।“
“मीटिंग है पापा!”
“ऐसी कैसी मीटिंग है की आदमी भूखा ही चले जाए, ला तेरे साहब से बात करूँ?”
“कुछ भी बेतुकी बात मत करो पापा,.... बच्चा नहीं हूँ मैं, ये मत कर वो मत कर”
दिलीप की ऊँची आवाज़ सहसा चुप हो गयी। पापा हथप्रभ से दिलीप को देखने लगे, दिलीप को ऐसा लगा की जैसे पापा देखते-ही-देखते अपने आप में सिकुड़ गए हो। पिता रुआंसे होकर चुप बैठ गए। रुँधे हुए गले से कुछ देर तक खाँसते रहे।
“दूध गरम किया था, वो तो पी ले कम-से-कम, और सेब भी रखा है बचा के, रास्ते में खा लेना”
दिलीप ने ख़ुद को वैसे ही खड़ा पाया जैसे कल वह पुल पे बूढ़े आदमी के सामने खड़ा था, अपराध-बोध में वह पिता को देखता रहा।
“क्या देख रहा है अब?”
“नहीं, कुछ नहीं! पापा”
“बहुत सयाना हो गया है ना तू, अब अपने बाप को समझा सही-गलत” पापा ने ये बड़बड़ाहट में ऐसे बोला कि दिलीप सिर्फ़ उनकी बड़बड़ाहट सुने, ये नहीं सुने उन्होंने कहा क्या है।
“दूध पी कर चले जाता हूँ!” दिलीप की कहे में प्रायश्चित था।
“और सेब भी रख साथ में” पापा के कहे में उनका पिता होना था।
“ठीक है पापा!” दिलीप के कहे में उसका बेटा होना था।
“कभी भी भूखे-प्यासे बाहर नहीं जाना चाहिए” पापा ये कहकर उठे और और टहलने के लिए बाहर निकले, जैसे ही दरवाज़ा खोला चौखट के पास पसरी धूप में बैठा गौर्रेयों का एक झुंड नीले आकाश में उड़ गया, रुई से बने मौन के पहाड़ की ओर।