अंधेरे में घर लौटती एक रोशनी
उपन्यास के एक अध्याय में,
जिसमें लिखी जाती है एक अरसे बाद मिले दो लोगों की निकटता
जितनी जगह दो शब्दों के बीच में छूटी रह जाती है
दो लोग आपस में उतने ही पास रह सकते हैं और उतने ही दूर भी ।
ऐसे ही किसी उपन्यास में रहती हुई एक कविता …
सालों बाद,
एक दिन अचानक,
तेज़ बारिश के बाद
किताबों की एक दुकान के बाहर वो, यूँ ही आसमान को एकटक ताकते खड़ी हुई, मिल गयी ।
उसकी कलाईयों पर वही पुरानी, काले बेल्ट वाली गोल्डन डायल की घड़ी झूल रही थी,
मेरी आँखो पर भी वही पुराना कत्थई फ्रेम का मोटा चश्मा टंगा था।
बहुत देर तक, हम एक बेंच पर साथ में अलग अलग बैठे रहे
एक दूसरे के एकांत में कहीं दूर बिछे गरम कम्बल ढूंढते हुए
दोनों के बीच, उसका गीला छाता लेटा रहा।
“तुम्हारे चश्मे का नंबर और बढ़ गया है ?”
“नहीं,उतना ही है।”
“1.5 ” दोनों ने साथ कहा ।
उसकी घड़ी को लेकर मैं कोई सवाल नहीं पूछ पाया ।
आखिर पूछता भी क्या ! कि तुम्हारी घड़ी में समय अब भी वैसे ही बीतता है जैसे पहले बीता करता था ?”
उसकी घड़ी और मेरे चश्मे के बीच एक महीन धागे से आकर बंध गयी अनगिनत स्मृतियाँ ।
मुझे,ऐनक की गीली कांच से उस पार सब धुंधला दिखा,
पिघल कर बहता हुआ,रंगों में।
बेस्ट बस का लाल, ब्रितानी इमारतों का पीला, और उसकी साड़ी का हल्का गुलाबी ।
सब धुंधला, पिघल कर, बहता हुआ ।
उसके बालों में अटकी और गर्दन से लुढ़कती बूंदें साफ दिखी।
सौंधी हवा के बीच भीतर फूटा गुन-गुनी धूधिया रोशनी लिए शहद का एक सोता।
“अब चलता हूँ” सोचकर मैं उठा और चलने लगा।
“शायद थोड़ी देर और बैठे रहेंगे” सोचकर वो बैठे रही।
“वापस जाकर क्या करोगे ?” उसने पूछा।
मैं …
वापस लौटकर …
एक ऐसी पंक्ति लिखूंगा
जिसके शब्दों के बीच उतनी ही जगह छूटे
जितनी समीपता हम दोनों के बीच थी।
लिखना चाहा समय का अस्तित्वहीन हो जाना.
लिखा “बचपन”
लिखना चाहा दो लोगो के बीच लेटा हुआ मौन ।
लिखा “पहाड़”,
फिर काट कर “पेड़ “लिख दिया ।
लिखना चाहा “उसकी कलाई और मेरी हथेली के बीच की दूरी
लिखा “स्पर्श”
फिर सभी शब्दों को एक सिरे से काट दिया।
“और तुम क्या करोगी,लौटकर !” मैंने पूछा
मैं,
एक चित्र बनाउंगी ।
चित्र में उसने ,
एक चुप से पहाड़ की ढलान पे एक अकेला बूढ़ा पेड़ उगाया, जिसकी शाखाओं पे दो नंगे बच्चे, एक दूसरे का हाथ पकड़ के
आजीवन बैठे रहें।
PAINTINGS BY Nickie Zimov and Malcolm Liepke
Story by Akshat Pathak