सिनेमा घर
“ नयी दुनिया” था या “दैनिक भास्कर”
ठीक-ठीक याद नहीं
अखबार के कोने में छपे कूपन बहुत ही एहतियात से काट के रखे थे दीदी ने
शहर के कांतिशिवा talkies में बाल दिवस पर दिखायी जा रही थी
“एक बंदर होटल के अंदर”
“एक ही कूपन है! दो लोग कैसे जाओगे?” टिकिट-चैकर ने दीदी से पूछा
दीदी ने मेरी ओर देखा “भैय्या तो छोटा है अंकल! जाने दीजिए ना!”
मेरी आँखें चिपकी हुयी थे फ़िल्म के poster पर
मैंने टिकिट-चैकर की ओर देखा,पीछे बहुत भीड़ थी
उसने hall का दरवाज़ा खोल दिया
दीदी ने मेरे लिए पानी की बोतल साथ रखी थी
पूरे समय मेरा हाथ पकड़े रखा था
मैं भी चुपचाप, जेब में दो पैकेट गुड़-पट्टी रख कर लाया था
दो घंटे के लिए वो अंधेर जगह
बन गयी थी
बच्चों से भरा एक जादूई कमरा
कहानी के बाद
जब बाहर आए थे सभी बच्चे
अपना-अपना विस्मय लिए अपने चेहरे पर
अपना-अपना आश्चर्य लिए अपनी जेबों में
अधिकतर बच्चे झुंड में कूदने लगे कहानी के “Dunston” नाम के बंदर जैसे
लगा की छोटे क़द के इंसानों के साथ कोई बड़ा social experiment किया गया है
गुड़ पट्टी खाकर
एक रहस्यमयी तिलिस्म को तोड़ कर मैं वापस लौटा था दीदी के पास
दोपहर के वक्त
सिनेमा घर से बाहर निकलते लोग अक्सर अपनी आँखें भींच लेते हैं
अविस्मरणीय कल्पना से सबको लौटना होता है एक साथ अपनी-अपनी दुनिया में
सपनों की दुनिया से यथार्थ की दूरी सिर्फ़ एक दरवाज़े की है
सिनेमाघर का दरवाज़ा
कहानी के शुरू होते वक्त जिस पर नज़र पड़ती है
लिखा होता है
ENTRY/ प्रवेश
प्रवेश जादू की दुनिया में
जिसमें आज भी कास के उस पार से
गुज़रती रेल को देखने पटरियों के साथ भागता है अप्पू
सूखे के बाद
नाच-नाच कर बारिश का स्वागत करती है दुर्गा
labyrinth के अंदर आज भी बैठा है वो दानव
जिसकी आँखें उसकी हथेलियों में है
पैरिस की गलियों से भागते हुए
ग़ुब्बारे पकड़ कर आकाश गंगा की सैर पर निकल चुका है नन्हा पास्कल
गरम हवा की लपटें अब भी ताज़ी हैं
सूबेदार की आँखों में अब भी मसाले की जलन है
राजे बाऊजी आज भी गणित के शिक्षक से उलझ रहे हैं कि
समानांतर रेखाएँ infinity पे जाकर मिलती हैं या नहीं !
साँय-साँय की आवाज़ उनके कानों में गूंज रही है
युद्ध के बाद तबाह हुए सिसिली के सिनेमा घर में
आज भी मौजूद है बूढ़ा प्रोजेक्शनिस्ट अलफ़्रेडो
कहानी के ख़त्म होते-होते
उस दरवाजे के ठीक ऊपर लाल शब्दों में चमक उठता है
EXIT / बाहर / बाहेर
सिनेमा-घर से
बाहर निकलते ही थोड़ी देर तक
सब कुछ सिनेमा का हिस्सा लगता है
पार्किंग में खड़ी गाड़ियां
popcorn बेचती बच्ची
उमस
उजाला
शोर गुल
सब कुछ
सिनेमा पर्दे पे जितना चलता है
उससे कहीं ज़्यादा हमारे भीतर चलता है
एक सीधी रेखा बनकर नहीं,
आपस में उलझे हुए तारों सा
अनगिनत सम्भावनाऐं लिए
हर पात्र अपना-अपना विस्तार लिए
पुराने को खोजता
एक नया सिरा
अंत से निकली
एक नयी शुरुआत
जैसा कुछ
किसी महान जादूगर के
अद्भुत जादू, जैसा कुछ
पापा की सुनायी हुयी
कहानियों जैसा कुछ
image by Thomas Hoepker
Naples, Italy 1956
ये जो"कुछ" है ना वो बहुत कुछ है, उसकी भी एक दुनिया है।
लाजवाब, अपने पूराने दिनों में जाना कितना सुखद लगता है। 👏👏👏💐