सबकी भाषा
इतने धीरज से लिखूं एक एक अक्षर
की
यदि पन्ने से समेट कर ,
ले हथेलियों में उछाल दूं सभी को
किसी खेत में ।
तो इस आशा से देखता रहूं पकती हुई ज़मीन को
कि जब एक बीज अंकुरित हो
तो बड़ा होकर बने वो पेड़
भाषा का ।
एक ऐसी बोली
जिसे गौर्रैया
कुत्ते भेड़ बकरी
नदी पहाड़
आदमी औरत
सब बोलें
जब उसकी नरम शाखों पे पक जाएं शब्द
तो दूसरे किसानों के साथ मंडी पहुँचकर
एक भी शब्द ना बेचूँ
यूँ ही बाँट दूँ लोगों में ।
एक नई भाषा
खेत में फसल सी उगी
सबकी भाषा
painting by Anup Khatua
poem by Akshat Pathak