“वंका”
भाग-1 * पिता के दस्तानों में जहाँ -जहाँ से उन उधड़ गया था, वंका अपने पीले दस्तानों से उन्हें ढकने की कोशिश करने लगा पर कोई ना कोई छेद खुला ही रह जाता *
*क्षमा चाहता हूँ , पिछले पोस्ट में कहानी के क्रम में भूलवश कुछ त्रुटि हो गयी थी । जो भी पाठक अपने इन्बॉक्स में यह कहानी पढ़ रहे हैं हैं वो पिछले पोस्ट के बजाए यह पोस्ट पढ़ें और बेहतर होगा अगर आप ये कहानी ब्राउज़र में पढ़ें ।*
ओवरकोट लाया है आपके के लिए दो भागों में एक लघु कथा!
“वंका”
भाग एक
शाम चटख नीली और बेहद सर्द थी ,अँधेरा काला न होकर गाढ़ा धुन्द्लाता नीला उजाला लग रहा था | बादलों की झीनी चादरों के बीच लटकते हुए एक लैंप पोस्ट से ठंडी ठंडी मद्धम सफ़ेद रौशनी की बौछार हो रही थी | शहर के मकानों की कतार के ओझल होते ही एक सड़क कुछ दूर कटी पहाड़ी तक ले जाती थी । कुछ सालों पहले यहाँ एक बहुत बड़ा पहाड़ था जिसके बीच से सैकड़ों मजदूरों ने खुदाई कर के एक सड़क उकेरी थी। पहाड़ दो हिस्सों में बट गया तब से इसे कटी पहाड़ी का नाम मिल गया | रातरानी और नीले पीले जंगली फूलों से ढकी पहाड़ी इंद्र धनुष से टूट कर गिरे टुकड़े जैसी लगती थी |
सड़क के दोनों ओर बसी नीलगिरी की बस्ती के ख़त्म होते ही बरगद का एक बूढा पेड़ अकेला रहता था जिसकी सबसे लम्बी टहनी पुराने पलाश के पेड़ में ओझल हो जाती। दो दोस्त बरसो से हाँथ पकड़े यूँ ही खड़े थे और इन के एक दूसरे को थामे हुए हाथों के नीचे से एक संकरा सा रास्ता झील तक जाता था ।
झील बेहद शांत थी, झील के किनारे खड़े दो पत्थरों पर सर से पाँव तक गरम कपड़ो में लिपटे वे दोनों बाप बेटे बैठे हुए थे ।
झील में शायद शाम का गाढ़ा नीला रंग छूट गया था | पलाश के आस पास पीली मीठी गंध,पीपल की हरी सौंधी सौंधी ...
एक लम्बी सांस भरने पे लगता था की शहद का स्वाद महक बन के जंगल में घुल गया है। शाम के सोते पेड़ों पर थके मांदे पक्षियों का हुआ शोर …..दूर अलाव में जलती लकड़ियों की चिट चिटाहट और हवाओं की आवाजें ऐसी आती थी जैसे कोई बच्चा एक पल अपने कानों को गिलास से ढकता हो और अगले ही पल हटा लेता हो
“पापा ..कितनी देर हो गयी ….आपने कहा था जादू दिखाओगे ..कहाँ है ?
“बस थोड़ी देर और ...जब होगा तो दिख जाएगा”
वंका बैठा बैठा बोर हो गया था पर पिता के कहने से आश्वस्त होने का भाव बोरियत में मिलकर एक नन्ही हल्की फुल्की उम्मीद बन गया । झील में जहाँ-जहाँ तक नज़रें जाती थी वंका ने अपनी नज़रें वहां वहां तक फैला ली |तभी अचानक, शाम का नीला लबादा ओढ़े किसी ने झील पर चमकनी अपने हाथों में ले झटक दी, जुगनुओं का एक झुण्ड बरगद की खोह से निकल कर झील तक आ पहुंचा और मंडराने लगा | वंका और उसके पापा चुप थे बस झींगुरों का शोर था और जुगनुओं का नृत्य था | पेड़ की टहनियां आपस में टकरा कर ताल दे रही थी |
“पापा !” बस इतना ही वंका के मुँह से निकल् पाया और उसका मुंह खुला का खुला रह गया .
ये तारे हैं .. तितलियाँ बनकर नीचे आ जाते हैं और तितलियाँ इनकी जगह लेने तारा बन कर उप्पर चली जाती हैं.
वंका और उसके पिता बिना कोई शब्द बोले आपस में बात कर रहे थे । जंगल का संगीत था, झील पे मंच बना था और जुगनू नर्तक थे| आधे घंटे बीत गए, पिता ने घडी देखते हुए वंका के कंधे पे हाथ रखा और चलने का इशारा किया, वंका उठ खड़ा हुआ |
दोनों पलाश और बरगद के पेड़ के के बीच वाले रास्ते से होकर बाहर आने लगे, तेज़ हवा से हिलती बरगद की लम्बी लम्बी बेलाएँ , क़दमों से पत्तों और छोटी लकड़ियों के चरमराने की आवाज़, झींगुरों का गीत बाकी सब चुप था । घबराकर वंका अपने पिता से थोड़ा और सट कर चलने लगा | वंका के पिता ने रुक कर वंका को देखा और हंस पड़े, फिर उस गोद में उठा लिया|
वंका के पिता ने फिर बरगद की उस बड़ी खोह की तरफ इशारा किया …
“वो खोह दिख रही है ?”
वंका ने कुछ देर तक खोह में पसरे अँधेरे को टटोलने के बाद धीरे से हाँ में सर हिलाया .. “डर क्यों रहा है ? अपने बाप के साथ है तू !”
पेड़ से कुछ, धम्म से नीचे गिरा ! वंका के पिता की चीख निकल गयी, और वंका भी चिल्ला पड़ा ..
फिर दोनों ने देखा की छोटी सी डाल गिरी है ...वंका के पापा हंस पड़े
“ अरे तो एकदम से गिर गयी ..तो घबरा गया ना मैं! ऐसे डरता-वरता नहीं हूँ” वंका भी हंसने लगा “ पापा डरपोक ! पापा डरपोक !”
वंका के पापा ने टोर्च निकाला और उसकी रौशनी बरगद की खोह पे पड़ी …
डर के मारे वंका ने अपने पापा की स्वेटर कस कर भींच ली …
और रोने लगा “नहीं पापा ! अभी नहीं ..कल आ जायेंगे ...कल आ जायेंगे “
“अभी नहीं ?”
“नहीं! “
“ठीक है ...कभी दिन में आ जायेंगे ..”
दोनों आगे बढ़ने लगे ..
“वो जो खोह है ना ! वो मामूली खोह नहीं है ...ये बरगद का पेड़ बहुत बूढ़ा है ,बरसो पुराना! मेरे बाबा के बाबा के बाबा से भी पुराना |”
मैं जब छोटा था तो इस खोह में ख़ास चिट्ठी डालता था, जो भी मुझे चाहिए होता उसे लिखता और देर शाम जब कोई नहीं होता तो इसकी खोह में चिट्ठी छोड़ आता”
“ जो भी चाहिए होता वो आपको मिल जाता था ?”
“ उम्म...हमेशा तो नहीं ..पर ऐसे इस बरगद को अपनी इच्छाओं के बारे में बता के अच्छा लगता था और कई बार मिल भी जाता था, शादी से पहले तुम्हारी मम्मी की तस्वीर इसी बरगद की खोह में छोड़ के गया था”
“ पर मम्मी तो आपको मिल गयी थी” वंका ने उत्साह से बताया ..फिर एक ही पल में उसके हाव भाव बदल गए
“फिर चली भी गयी”
पिता ने वंका को देखा और फूले हुए गालों पर थपकियाँ देते हुए कहा “अरे तो फिर ये छोटा सा वंका मिल गया ना !”
वंका गोद से नीचे उतरा, वंका के पिता ने पहाड़ी के पास उदास खड़े ठूंठ पे टिकी अपनी साइकिल उठायी और वंका को सामने डंडे पे लगी छोटी सी सीट पे बैठा लिया|
वंका ने गर्दन घुमाकर अपने पिता से पुछा “आप अभी भी चिट्ठी डालते हो “
हाँ !
अब क्या चाहिए आपको ?
“यही कि तू कभी बड़ा ना हो,..इतना सा ही रहे”
वंका दांत दिखा के हंस पड़ा .. “ऐसा थोड़े ही होता है “
“हाँ, होता तो नहीं है ...पर…”
वंका के पिता ने बात यहीं छोड़ दी क्योंकि साइकिल का चेन-कवर और पैडल आपस में बहुत जोर जोर से बात बात करने लगे थे! वंका पीछे मुड़ कर चेन-कवर को देखने की कोशिश करता फ़िर अपने पापा को देखता
“पापा..ये ठीक करवा लो ना!”
थोड़ी आगे जाकर साइकिल रुकी ,वंका के पिता नीचे उतरे, साइकिल को आगे पीछे धका कर देखा साइकिल मेन स्टैंड पे लगाईं और धीरे से चेनकवर पे दो लात मारी, फ़िर बैठ कर उसे हाथों से अन्दर की तरफ दबाने लगे।
“चेन भी टाइट करवानी पड़ेगी” वंका भी अपनी सीट से से कूद गया और अपने पिता के बाजू में उकड़ू बैठ कर ऐसे जांच पड़ताल भरी नज़रों से देखने लगा जैसे सब समझ रहा हो, पिता ने खड़े होकर धीरे से एक लात चैन कवर पे और मारी|
“अब काम बन जाएगा”
वंका ने हाथ का पूरा जोर लगा कर पैडल घूमा दिया, भर्रायी आवाज़ अब नही आ रही थी | पिता दो कदम पीछे जाकर साइकिल को देखने लगे, वंका साइकिल के पास पहुंचा और एक लात उसने भी जमा दी |
‘पिता ने पैडल घुमाया..इस बार कोई आवाज़ नहीं थी …
“हो गया पापा .. सब ठीक कर दिया मैंने”
वंका नाचते हए ये वाक्य पूरा बोल भी नहीं पाया था कि चेनकवर साइकिल से उखड़ कर नीचे आ गिरा | वंका का मुँह सिकुड़ गया |
“अब हो गया पूरा ठीक..साली दिक्कत ही ख़तम” ! ये सुनकर वंका भी हंस पडा !
पिता ने चेन कवर को साइकिल के कैरीयर में फंसाया... और दोनों आगे बढ़ गए|
गुज़रते हुए रास्ते से हरे भरे झूलते पेड़ों की और चट्टानों की उपस्थिति कम होने लगी, उनकी जगह दूर तक फैले पीले खेतों ने ले ली थी, जिनके ख़त्म होते ही शहर शुरू हो जाता था । समय के यात्री अनोखा प्रेम साझा करते हुए घर की ओर बढ़ रहे थे ।
पिता के दस्तानों में जहाँ जहां से उन उधड़ गया था वंका अपने पीले दस्तानो से उन्हें ढकने की कोशिश करने लगा पर कोई ना कोई छेद खुला ही रह जाता | वो एक तरफ ढकता तो दूसरी तरफ से तेज़ सर्द हवा छोटी छोटी सुइयां लेकर चुभोने अन्दर घुस जाती। वंका अभी अपने पिता की तकलीफों को ढकने के लिए अभी बहुत छोटा था|
“पापा ये फट गए हैं ...नए ले लो ना” वंका के पिता ने साइकल के हैंडल से अपना दाहिना हाथ उठाकर दस्ताने की जांच पड़ताल की, “ ये ठण्ड तो निकल जायेगी ...अगली बार देखेंगे, इस बार एक बढ़िया सी स्वेटर जरूर ले लूँगा”
“येलौ कलर की लेना ...मेरी भी येलौ है ना!”
“हओ ..मेरे बाप ले लूँगा ..पहले साइकिल ठीक करवा लूँ फ़िर”
शहर का इलाका शुरू होने ही वाला था | शाम का गाढ़ा नीला कब काला हो गया झील को भी इसका पता नहीं चला होगा ..पर झील बेफिक्र थी क्योंकि रात का रंग इतनी आसानी झील पर नहीं चढ़ता था! कभी चाँद इसकी जिम्मेदारी लेता ! तो कभी तारे ..और दोनों की अनुपस्थिति में जुगनू झील पर मंडराने पहुँच जाते थे|
शहर की सड़क रात को ओढ़ लेती थी,वंका के पापा को पता था की सड़क यहीं है पर कहाँ चली गयी ये समझ नहीं आ रहा था | सड़क किनारे खम्बे तो खड़े हुए थे पर उनमें बल्ब नहीं था | खम्बो पर गौर्रियाओं ने अपने घोसले बना लिये थे। पिता ने टॉर्च वंका को थमाया और खुद साइकिल से उतर कर पैदल चलने लगे वंका टॉर्च की रौशनी को जादुई शक्ति समझ कर यहाँ से वहां घुमा रहा था |
“पापा ! अगले महीने न्यू ईयर आ जायेगा ?
“हम्म !”
“जनवरी ! “
“हम्म”
“मेरा जन्मदिन?”
“हम्म “
वंका कुछ देर तक उँगलियों पे गिनता रहा! फ़िर एक उत्साह से बोला ..
“34 डेज़”
एक अनजान चिंता का भाव पिता के चेहरे पर पल भर के लिए मंडराया फिर ओझल हो गया
भाग दो - अगली कड़ी में
Art by Don madden
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