गुलमोहर बस स्टॉप (a short story)
चित्रा ने मन ही मन सोचा कि वो थोड़ा और आगे बढ़ेगी तो निश्चित ही बूँदें भी पड़ने लगेंगी, और थोड़ा चलेगी तो उसे शहर के बीचों-बीच एक झरना भी दिखेगा।
जब चित्रा घर से ऑफ़िस के लिए निकली थी तो आसमान एकदम साफ़ था, नीले आसमान में बादलों के चह-बच्चों से टकराकर गिरती उजली गरम सफ़ेद धूप। चित्रा अपनी हाथ-घड़ी देखती, अपने ऑफ़िस-बैग को एक कंधे से दूसरे पे टांगते हुए सम्भालती और अपने कदमों की गति बढ़ा लेती,
ऑफ़िस खुलने में आधा घंटा बाक़ी था ।
कुछ कदम चलते ही सड़क पर साथ चलती चित्रा की परछाईं धुँधली हो गयी ।आसमान को बादलों ने ढँक लिया वो थोड़ा और आगे बढ़ी तो ठंडी हवाएँ उसे छूकर निकली, हवाओं में बारिश की महक थी। किसी पास के गाँव में ज़रूर पानी गिरा है, बहुत दिनों से ऐसा हो रहा है की बादल आते हैं पर बारिश नहीं होती।
चित्रा ने मन ही मन सोचा कि वो थोड़ा और आगे बढ़ेगी तो निश्चित ही बूँदें भी पड़ने लगेंगी, और थोड़ा चलेगी तो उसे शहर के बीचों-बीच एक झरना भी दिखेगा।
सड़क पर पानी की बूँदें पड़ने लगी, चित्रा ने अपने सिर को बैग से छुपाया और सामने, गुलमोहर के पेड़ से लगे बस-स्टॉप की ओर भागी।
चित्रा ने घड़ी की ओर देखा, और बस-स्टॉप के पास पहुँच कर टीन की एक शेड के नीचे, एकदम पीछे सट कर खड़ी हो गयी, ऐसे की सड़क पर गिर कर उछलती बूँदों से उसका नया, फ़िरोज़ी रंग का सूट ख़राब ना हो जाए । अग़ल बग़ल लगी दुकानों की छत पर गिरती बूँदों की आवाज़ें तेज़ हो गयी थी, जैसे कोई लगातार एक गति से ढेरों कंकड़ फेंक रहा है। और भी लोग यहाँ वहाँ भाग के बारिश से बचने की जगह ढूँढने लगे।
सामने खड़ा, फूलों से लदा गुलमोहार बारिश में धुंधला दिखा, जैसे एक विशालकाय बूढ़ा आदमी लाल ओवरकोट ओढ़े खड़ा है जिसके लाल रोएँ निकल कर यहाँ वहाँ उड़ रहे हैं।
चित्रा ने अपनी घड़ी की ओर वापस देखा, अचानक सामने एक लोकल बस का तेज़ हॉर्न सुनते ही उसने अपनी नज़रें उपर उठा ली, वो समय देख ही नहीं पायी। बस के गेट पे खड़ा हुआ कंडक्टर चिल्लाते रहा “ गुलमोहर वाले आ जाओ, गुलमोहार! बस स्टॉप ! गुल-मोहर, दिलीप बाबु आइए!”
पहली खिड़की पर गीले काँच के पीछे दिलीप का शांत चेहरा दिखायी दिया। उसने फिर घड़ी को देखा, घड़ी में समय रुक गया था।
शायद बारिश का पानी ठंडी हवाओं के साथ भीतर चला गया होगा!
दिलीप ने बस के दरवाज़े पे खड़े खड़े ही छाता खोला और धीरे से नीचे उतरा, इस तरह के एक भी बूँद कीचड़ पैंट पर ना उछलने पाए।
चित्रा को देख दिलीप बहुत हल्का सा मुस्कुराया, रुई जितना हल्का।
“ मैडम, आप?”
“ जी हाँ! बस ऑफ़िस के लिए निकली ही थी और बारिश शुरू हो गयी, बस फिर यहीं रुकना पड़ा!”
“अभी तो दफ़्तर खुलने में टाइम है, आप जल्दी आ गयी!”
एक धीमा सा मौन
“आप इसी बस से आते हैं?”
“जी”
“रोज़ ?”
“जी”
“इतनी दूर से!”
“दूर कहाँ! यहीं पास ही है , बस आधा घंटा!”
“बस आधा घंटा दूर?“
दिलीप ने धीमे से आँख बंद कर हामी भरी !
“आप समय को दूरी में माँप लेते हैं?” चित्रा ने मुस्कुराते हुए पूछा
“जी?”
“कुछ नहीं!”
दोनो फिर चुप हो कर बारिश को देखने लगे। बूँदें उड़ कर चित्रा के चेहरे पर आ रही थी, जितनी बार अपने बाल पीछे करती उतनी बार उड़ के सामने आ जाते । घड़ी के काँटे अभी भी रुके हुए थे।
दिलीप अपने पैंट पे उछले एक दो छीटों को बहुत बारीकी से हटाना चाह रहा था ऐसे की वो हटें तो उनके दाग ना फैल जाएँ!
“यहीं कोई कमरा देख लीजिए, सस्ता मिल जाएगा।”
दिलीप का ध्यान अचानक चित्रा के सवाल पे गया।
“यहाँ! यहाँ रह के क्या करूँगा! वहाँ गाँव में घर है “ एक क्षण को दिलीप अपना वाक्य रोक दिया
“और अकेले रहने की कभी आदत नहीं रही, यहाँ नहीं रह पाउँगा!”
चित्रा ज़ैसे तुरत बोल पड़ेगी “अकेले क्यों रहोगे?”
पर चित्रा ने एक शुष्क हामी भरी
दिलीप एक पल को चुप रहा फिर थोड़ी झिझक के साथ बोला
“चलिए मेरे साथ ही चल लीजिए, बड़ा छाता है।”
चित्रा बारिश की ओर देखने लगी
“अरे परेशानी हो जाएगी, दोनो भीग जाएँगे! इस से अच्छा कोई एक तो सूखा-सूखा ऑफ़िस पहुँचे!।
“दोनो आधा आधा ही भीगेंगे!”
“जी?”
“ आ… मुझे कोई परेशानी नहीं होगी! ये बैग मैं इस तरफ़ कर लूँगा, ऐसे!” दिलीप ने अपना ऑफ़िस बैग एक तरफ़ कर लिया
“तो फ़ाइलें गीली भी नहीं होंगी, थोड़ी बूँदा -बांदी तो चलती ही है “
“अच्छा ठीक है, मैं भी ऐसा ही कर लूँगी,”
थोड़ा रुक कर चित्रा पूछती है “आप चाय पिएँगे ?”
दिलीप कुछ देर सोचता रहा
“ जी ! पी लेते हैं”
“यहाँ से नहीं वो आगे एक दूसरी दुकान है, गुढ़ वाली चाय बनाता है, बढ़िया अदरक के साथ” दोनो सड़क पार कर के दूसरी ओर जाने लगे।
“आपका शर्ट अच्छा है !” सुन कर दिलीप मुस्कुराया “जी thank you!”
“नहीं म.. मतलब मुझे पापा के लिए शर्ट ख़रीदना है, उनका बर्थ्डे आ रहा है ! बहुत दिनों से ढूँढ रही हुँ पर अच्छा कुछ मिल ही नहीं रहा, ये कहाँ से लिया आपने?”
“ये! ये तो खुद मैंने पिता जी का शर्ट पहना है!”
“फिर पिता जी! वो क्या पहनते हैं ?”
“जी वो बस बानियान पहनते हैं, घर पे ही रहते हैं दिन भर । शाम-वाम में घूमने बाहर निकलते हैं तो कुर्ता पायजामा!”
“और आपकी मम्मी ?”
“ मम्मी साड़ी पहनती है !”
चित्रा हंस पड़ी “नहीं, मेरा मतलब था वो नहीं जाती शाम में आपके पिता जी साथ घूमने !”
“अच्छा! ये पूछ रहीं है! दिन भर तो कुछ ना कुछ काम में लगे ही रहती हैं तो थक जाती हैं , पर कभी-कभार मन हुआ तो चली जाती हैं।
दिलीप ने जिस हाथ से छाता पकड़ रखा था वो हाथ बार बार चित्रा के कंधों को छू जाता, दिलीप बार बार छाते को अपनी ओर खींचता तो दूसरी ओर से चित्रा भीगने लगती।
‘लाइए मैं पकड़ लेती हुँ!”
“अरे नहीं! कोई बात नहीं, बस सामने ही है दुकान, देखिए यहाँ तक अदरक की सुगंध आ रही है।”
“अरे दे दीजिए, मैं अपना हाथ थोड़ा ऐसे ऊपर रख के पकड़ लूँगी”
जैसे ही चित्रा का छाते को पकड़ना हुआ वैसे ही दिलीप का छाते को छोड़ना हुआ
छाते के एक हाथ से दूसरे हाथ में जाने से दो हथेलियाँ छुआ गयी।
“आपका भी सूट अच्छा है! मतलब कलर अच्छा है और... अच्छा भी लग रहा है आप पे !”
चित्रा बस आँखें नीचे कर के दिलीप को सुनते रही, दिलीप सोचता रहा की काश वो इसी बात को बेहतर शब्दों में कह पाता
गीली सड़क पर गिरती तेज़ बूँदें, चित्रा की खामोशी को सुनकर दिलीप फ़िर बोल पड़ा
“नहीं, वो आ… दरसल छोटी सिस्टर टीचर है। अभी अभी जॉइनइंग हुयी है तो कह रही थी कि स्कूल जाने के लिए कुछ नए सूट या साड़ी वग़ैरह ख़रीद लेगी, अब मुझे तो ज़्यादा समझता नहीं है आप को कभी समय मिले तो साथ ले जाइएगा उसे।
“देख के पैर रखिए, यहाँ गड्ढा है। पानी भर गया है तो दिख ही नहीं रहा” चित्रा ने दिलीप को अचानक रोकने के लिए उसके हाथ पकड़ लिया। दिलीप अचानक रुक गया, उसे लगा कि शायद मानव इतिहास में पहली बार सड़क पर रहते किसी गड्ढे ने एक आदमी का भला किया है! चित्रा ने अपने हाथ पीछे खींच लिए।
“आपको कैसे पता?”
“क्या?”
“कि यहाँ गड्ढा है?”
“पिछले साल बारिश के समय यहीं गिर गयी थी यहाँ, तब से ये जगह याद है, जो कोई भी साथ होता है उसको बता देती हुँ की देखना! यहाँ गड्ढा है!”
“चोट तो नहीं लगी थी?” चित्रा ने दिलीप को देखा, ।
“थोड़ी सी, घुटने पे! अब तो एक साल हो गया होगा।”
दिलीप का कद ऊँचा था, जिस हाथ से चित्रा ने छाता पकड़ रखा था वो हाथ बार बार दिलीप के कंधों को छू जाता।
दोनो को एक गति बनाने में थोड़ा समय लगा, दिलीप थोड़ा धीमे चलने लगा, चित्रा थोड़ी तेज़।
दिलीप अब अपना कंधा बार बार पीछे नहीं खींचता और ना ही चित्रा अपनी हथेलियों को रोकती ।
दिलीप का कंधा चित्रा की कलाई पे और चित्रा की कलायी दिलीप के कंधों पे आपस में टिके हुए थे । रिम झीम बारिश और ठंडी हवाओं के बीच दोनो, इस स्पर्श को साझा करते, एक परस्पर मौन में पैदल आगे बढ़ते हुए,दोनो भीतर कुछ पिघलता हुआ सा महसूस कर रहे थे ।
चित्रा की घड़ी में समय अब भी रुका हुआ था।
तेज़ हवा में उड़े गुलमोहर के लाल फूल सड़क पर बिखरे पड़े थे, थोड़ी दूरी पर पुराने ओवर ब्रिज पर जमा हुआ पानी, एक सकरी जगह से झरना बन कर नीचे गिर रहा था।
पुराने पत्थरों से होकर बहता मैले पानी का झरना।
तेज़ बारिश में चित्रा ने एक हाथ में छाता थाम रखा था, जिसके नीचे दो लोग चल रहे थे और दूसरे हाथ से उसने अपने बैग को पकड़ रखा था जिसमें सोया हुआ था एक सूखा
रेनकोट।
*समाप्त*
ये कहानी जितनी दिलीप की छाते की है उतनी ही चित्रा के रेन-कोट की भी है
दो लोगों के साथ चलने में इतनी संभावना छुपी होती हैं, ये मुझे इस कहानी को लिखते लिखते ज्ञात हुआ।
जैसे दो लोगों का साथ चलना अपने आप में एक कविता है।