तो दृश्य कहता है कि
“रात में
आर्यभट्ट नदी किनारे लेटे हुए हैं और अपलक
चमकते तारों को देख रहे हैं
बिना ये जाने की उन्हें शून्य खोजना है
वो शून्य खोज रहे हैं”
बालू में उनकी अनभिज्ञ उँगलियाँ निरंतर कुछ उकेर रही हैं
पात्र का सरलता से कुछ करते रहना जिस पर तुरंत ध्यान ना जाए, फिर बाद में जब कैमरा वहाँ पहुँचा तो उन क्रियाओं का अर्थ बदल जाए, कहानी कहने के इस डिवाइज़ को फ़ोरशैडोइंग कहते हैं। निर्देशक जो मित्र हैं हमारे वो काफ़ी हद तक हिचकॉकियन स्कूल ऑफ थॉट से आते हैं तो यह सब बताते रहते हैं।
जिस जगह आर्यभट्ट लेटे हैं वो कोई साधारण जगह नहीं है,बिहार के इस कोने में इतनी जगह हमेशा बाक़ी रहती है कि इसे आकाश नापने की जगह भी कहा जाता है
नाम- तारेगना
माओवादी गतिविधियों के साये में जी रहा तारेगना अचानक 2009 में सुर्ख़ियों में आ गया
कुछ बहुत ख़ास हुआ - * “जुलाई 2009 के पहले हफ्ते में अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने घोषणा कर दी कि 21वीं सदी का सबसे बड़ा पूर्ण सूर्यग्रहण तारेगना से ही देखा जा सकेगा। इसके बाद तो नासा, इसरो सहित फ़्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन के सैकड़ों वैज्ञानिकों ने यहां पहुंचने की घोषणा कर दी। तब भारत के वैज्ञानिक, खगोलविद् और इतिहासकार जैसे गहरी नींद से जागे। सब भागने लगे तारेगना की ओर। उनका एक पड़ाव बीच में खगौल भी हुआ करता था। माना जाता है कि आर्यभट्ट तारेगना और खगौल के बीच से खगोलीय अध्ययन करते रहे थे। उनका कालखंड 476-550 ईसवी तक है। इस संबंध में दिलचस्प है कि 2009 के बाद से ही माओवादियों ने आर्यभट्ट और उस समय की रिसर्च के सम्मान में अपना ठिकाना बदल लिया। क्षेत्र का विकास भी हुआ। तभी से देसी-विदेशी वैज्ञानिकों का हाई-रेज़लूशन दूरबीन के साथ यहां जमावड़ा लगने लगा *
पर आर्यभट्ट के पास कोई दूरबीन नहीं थी, अभी गैलीलियो की दूरबीन को जन्म लेने में कई सदियाँ बाक़ी थी।
आर्यभट्ट ने यहीं रहकर आकाश में ग्रह-नक्षत्र और तारों की स्थिति का अध्ययन किया था। इसलिए इस जगह का नाम तारेगना पड़ गया!
लेनिनग्राड, स्टालिनग्राड सुनकर लगता है कि इन जगहों का ये नाम पड़ने के पीछे बहुत हिंसा हुई है, खून बहा है पर “तारेगना” और “बोध-गया” नाम सुनकर लगता है कि सभ्यता के ideological और spritual upliftment के लिए ज़रूरी विचारकों के प्रयासों का नाम शहरों को मिल गया, बहुत अजीब सी शांति मिलती है ये जानकर कि इतिहास बनने का आधार हमेशा हिंसा नहीं होती
शून्य के बिना क्या ही सम्भव होता? इस पर एक निबंध अलग से लिखा ज़ा सकता है।
“जब आर्यभट्ट को शून्य के अस्तित्व का बोध या विरोधाभास हुआ होगा” किसी फ़िल्म मेकर का इस दृश्य को कैमरे में पकड़ना कोई आसान बात तो है नहीं।
तारेगना का दूसरा ऐतिहासिक महत्व भी है, पास ही मसौढ़ी शहर भी है मोरहर, दरधा और पुन-पुन नदी छूकर निकलती हैं ,पुन पुन नदी का वायु और पद्म पुराण में ज़िक्र है।
इसका नाम पुनः पुनः से स्थानीय बोली में आते आते पुन-पुन हो गया
पुनः पुनः मतलब ये नदी बार बार हमें पितरों को हमारी स्मृतियाँ अर्पित कर पाप धोने का अवसर देती है पर हम निरंतर पाप करते जाते हैं तो शायद पुन पुन में लगभग हर साल बाढ़ भी आती है
“तो अगर तारेगना के आर्य भट्ट पर कोई दृश्य फ़िल्माना होगा तो इतनी आसानी से तो कुछ नहीं हों पाएगा” ये बात तो तय थी
सिनेमा यथार्थ की नक़ल करता है
पर हमें हमारे सत्य और यथार्थ के और क़रीब पहुँचा देता है
क्योंकि सिनेमा फ़्रेम में उन चीजों को पकड़ता है जिन पर अमूमन हमारी नज़र नहीं जाती या जानकर भी हम नज़रंदाज़ कर देते हैं
जैसे लेखक आम जीवन की भाषा से लिए हुए शब्दों को लिख कर कुछ और दिखाने की कोशिश करता है
वैसे ही
निर्देशक अपने लेंस से देखने की भाषा को दिखाकर, कुछ और लिखने की कोशिश करता है
नहीं तो फिर मतलब ही क्या है?
क्रीएटिव लिबर्टी लेते हुए निर्देशक और क्रू ने फ़ैसला किया
कि तारेगना को बम्बई के पास स्थित वसई में फ़िल्माया जाए
शिफ़्ट दोपहर बारह से रात बारह तक की थी, दिन में कोई दूसरा सीक्वैन्स भी शूट करना था,
दिन का शॉट ख़त्म ख़त्म होते शाम के 7.30 बज गए ,
पर अगला शॉट दूसरी लोकेशन पर था, मात्र दो सौ मीटर की दूरी तय करनी थी
पर समस्या ये थी की इतने बड़े भारी भारी ट्रैक्स, रिग और लाइट्स ले जाना कोई आसान बात नहीं थी।
और रास्ता ऐसा था नहीं की गाड़ियाँ नीचे समुद्र किनारे तक जा सके
आर्यभट्ट का किरदार प्ले कर रहे थे पार्थो नाम के NSD स्टूडेंट जो production assistant त्रिभुवन के मित्र हैं वो सुबह से इंतेज़ार में थे।
साढ़े सात से 12 बज गया सिर्फ़ सेट अप करने में
पर्मिशन सिर्फ़ 12 बजे तक की थी! पोलिस वाले कभी भी आ सकते थे और शायद आए भी पर producer साहब लतीफ़ ये सब हमेशा सम्भाल लेते है
पर पूरी टीम तब अवाक खड़ी रह गयी जब ये पता चला कि आज हाई टाइड्ज़ होंगे
और ये ऐसे पता चला क्योंकि लहरें बता रही थी
टीम में हड़कम्प मचा हुआ था कि कैसे समय पर शूट पूरा हो पाएगा
जीवन में पहली बार हमारे मित्र को अनुराग कश्यप वाल केऑस हिट किया और सबको यहाँ से वहाँ भागता देख़ उन्हें सिनेमटिक आनंद आ रहा था
निर्देशक कभी भी चिल्ला सकता है इस डर से प्रडक्शन टीम उन्हें बार बार सिगरेट ऑफ़र कर रही थी, जैसे सिगरेट से ग़ुस्सा कम हो जाएगा पर निर्देशक को स्क्रिप्ट में लिखे exterior पे बहुत रोमांचक प्रेम आ रहा था
बाक़ी लोग रेत को जोड़ कर एक बाँध बनाने की कोशिश कर रहे थे।
फ़िल्म बनाने के लिए क्या कोई समुद्र से लड़ जाएगा ?
शायद फ़िल्म बनाने वाले अपने आप को सिकंदर या नेपोलियन समझते हैं
तभी तो जर्मन फ़िल्म मेकर Werner Herzog कहता है
“I would travel down to Hell and wrestle a film away from the devil if it was necessary.”
निर्देशक और सिनेमटोग्राफेर अब समय के हिसाब से नहीं पर दूर से आती लहरों को देख़ कर अपने शॉट ले रहे थे
समुद्र उन्हें समय बता रहा था…
आख़री दृश्य जो बातचीत में बताया गया
“पार्थो कमाल के अभिनेता निकले!
उन्होंने दो तीन टेक में ओके शॉट दे दिया
लाइट टीम से लेकर production के लोग अपने हाथ में लम्बे लंबे तार लिए खड़े थे क्योंकि लहरें अब आगे बढ़ आयी थी और उनके पैरों को छू रही थे
सिनेमटोग्राफेर ने कैमरा हवा में टांग रखा था
समय वहीं रुका रहा
लहरें लौट गयी
आर्यभट्ट सिनेमा में शून्य की खोज कर चुके थे।
शुरुआत में जो आर्यभट्ट गीली रेत पर अपनी उँगलियों से उकेर रहे थे वो शून्य की ही आकृति थी, विशाल समुद्र के किनारे उँगलियों से बने छोटे से शून्य पर कैमरा आकर रुकता है
transition to
कम्प्यूटर स्क्रीन पर बहुत सारे शून्य और एक फ़्लिकर कर रहे हैं
और भारत का पहला उपग्रह “आर्यभट्ट” उड़ान भरने वाला है
ये अगला दृश्य है।
photographs by Varsha Sharma
*Navbharat में प्रकाशित एक लेख से