इब्न बतूता, पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में।
थोड़ी हवा नाक में घुस गई,
थोड़ी घुस गई कान में।
कभी नाक को, कभी कान को,
मलते इब्न बतूता।
इसी बीच में निकल पड़ा,
उनके पैरों का जूता।
उड़ते-उड़ते जूता उनका,
जा पहुँचा जापान में।
इब्न बतूता खड़े रह गए,
मोची की दूकान में।
कवि: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना