हम सभी अपने अपने घरों के अलावा, धीरे धीरे समय के साथ एक विचार, एक इच्छा या एक भाव बनकर लोगों में भी रहने लगते हैं।
लोगों के भीतर जो अनेक घर बने हुए हैं उनमें असंख्य अनजान लोग एकसाथ रहते हैं, ज़रूरी नहीं हमेशा के लिए, पर रहते हैं। कुछ मेहमान से, कुछ किरायेदार बनकर, कुछ वहीं बस जाते हैं।
ऐसे में किसी का जाना, दूर चले जाना हमेशा के लिए, इतना डरावना हो सकता है कि इंसान बेघर हो जाता है, फिर नया घर ढूँडने में, बनाने में, उसके भीतर रहने में बहुत समय लगता है
उसके चले जाने का, खो जाने का डर मैंने कई बार महसूस किया है और लगता है की केदारनाथ सिंह सालों पहले मेरे लिए ये लिख कर छोड़ गए
“मैं जा रही हूँ – उसने कहा
जाओ – मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.”
हम क्रिया को शब्दों से कहने में, शब्दों को क्रिया से बताने की उधेड़बुन में ही लगे रहते हैं, इस उधेड़बुन में अक्सर एक बिन बुलायी कविता बाहर कूद पड़ती है और सर्वत्र भटकते रहती है।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना किसी के साथ रहने की आशा और उससे अलग होने के भय को सोच कर लिखते हैं कि
उसके साथ होने पर उन्हें लगता है जैसे सभी पेड़ों का क़द इतना छोटा हो गया है कि सभी को झुक कर आशीष दे सकते हैं
और एक सम्भावनाओं से बनी नए आकाश के नीचे बसी दुनिया देखने लगते हैं जहाँ शायद आसमान की जगह सब के उप्पर प्रेम है, सोचिए
जुलाई में प्रेम में भटकते निकटता के बादलों से कैसी अद्भुत वर्षा होगी!
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
अनिश्चितताओं से भयभीत होकर उनके शब्द अपनी ऊर्जा खो देते हैं और उसके चले जाने के डर से एक और कविता उगती है जो फाँस बनकर छाती में चुभती है, उसके साथ ना होने पर अब कही कोई यात्रा नहीं है, सब अर्थहीन है, जिज्ञासा मर चुकी है और उनके पंख छोटे हो चले हैं। घाँस की पत्तियों का आकार अचनाक बड़ा हो गया है, जीवन एक धीमी मृत्यु है।
तुमसे अलग होकर लगता है
अचानक मेरे पंख छोटे हो गए हैं,
और मैं नीचे एक सीमाहीन सागर में
गिरता जा रहा हूँ।
अब कहीं कोई यात्रा नहीं है,
न अर्थमय, न अर्थहीन;
गिरने और उठने के बीच कोई अंतर नहीं।
तुमसे अलग होकर
हर चीज़ में कुछ खोजने का बोध
हर चीज़ में कुछ पाने की
अभिलाषा जाती रही
सारा अस्तित्व रेल की पटरी-सा बिछा है
हर क्षण धड़धड़ाता हुआ निकल जाता है।
तुमसे अलग होकर
घास की पत्तियाँ तक इतनी बड़ी लगती हैं
कि मेरा सिर उनकी जड़ों से
टकरा जाता है,
नदियाँ सूत की डोरियाँ हैं
पैर उलझ जाते हैं,
आकाश उलट गया है
चाँद-तारे नहीं दिखाई देते,
मैं धरती पर नहीं, कहीं उसके भीतर
उसका सारा बोझ सिर पर लिए रेंगता हूँ।
तुमसे अलग होकर लगता है
सिवा आकारों के कहीं कुछ नहीं है,
हर चीज़ टकराती है
और बिना चोट किये चली जाती है।
तुमसे अलग होकर लगता है
मैं इतनी तेज़ी से घूम रहा हूँ
कि हर चीज़ का आकार
और रंग खो गया है,
हर चीज़ के लिए
मैं भी अपना आकार और रंग खो चुका हूँ,
धब्बों के एक दायरे में
एक धब्बे-सा हूँ,
निरंतर हूँ
और रहूँगा
प्रतीक्षा के लिए
मृत्यु भी नहीं है।
मार्गरेट एटवुड की इस पंक्ति में हल्की आशा लिए एक त्रासदी झलकती है
“I exist in two places, here and where you are”
art by Tetsuo Aoki