मिस्र के पिरामिड और मेरे शहर का पुल
जो लोग कविता लिखते हैं वो कभी कभी थोड़ा सा समय भी लिख जाते हैं
समय में, बीते हुए क़ुछ वर्षों की दूरी …
कुहासे के बीच, अपने-अपने पेड़ों से चुप चाप लटके कठहलों को देखकर लगता था कि कोई किसान या मज़दूर बड़ी मेहनत से छोटी-छोटी बोरियाँ लटका के अपने घर चला गया है, सड़कों को पीली छांव देते मौन खड़े, मुस्कुराते पलाश। फ़रवरी की हल्की धूप में अंग्रेज़ो के बनाए तोपघर के किनारे खड़े होकर स्कूल बस का इंतज़ार, ताज़ा बने गाजर के अचार में सरसों की झार, जाम के पेड़ के नीचे बिछी चटायी पे दोपहर का खाना
बाल्टी के धुंधले पानी में नीचे सतह पे बैठे, बहते से दिखते पीले आम। कूलर के ख़स ख़स की सौंधी महक !बारिश में, सकड़ों के गड्ढों में उठते सैनिकों की टोपी जैसे बुलबुले, एक छाते के नीचे स्कूल से घर लौटते बच्चों का झुंड, गीले मोजे की पूरे घर में तैरती महक
ये सब टुकड़ों में याद है एक बहते हुए ग़र्म फ़ोटोग्राफ़ की तरह पर इन अनगिनत छवि की स्मृतियों में या अनगिनत स्मृतियों की एक छवि में कहीं दूर, चुप चाप, एक चुप से दोस्त की तरह लेटा रहता है लगभग एक किलोमीटर लम्बा सदर मोहल्ले को बडोरा से जोड़ता “ पुल”!
उन दिनों जब दिग्विजय की सरकार थी, बिजली बहुत जाती थी। अरे! जाती क्या थी! कह लीजिए कि थोड़ी देर के लिए ही आती थी,
सभी बच्चे मिल के सोचते की अगर ये पुल एक दिन खड़ा हो जाएगा अपने दो पैरों पे तो दूसरे छोर पे पहुँच के हम सभी तोड़ लाएँगे, अपने हिस्से का थोड़ा सा एक टुकड़ा चाँद, हमेशा जलने वाला लैम्प की तरह ठंडी चाँदीनुमा रोशनी बहते रहेगी हमेशा, अलमारी में रखे कपड़े सब ठंडे रहेंगे, पिता जी की जेब में, दादा की स्वेटर में, दीदी के बस्ते में या माँ के बटुए में, कहीं भी छुपा के रख देंगे चमकते चाँद के ठंडे टुकड़े को, अलमारी के पालों से रिसती रहेगी रोशनी।
फिर ख़राब हो चुके बल्ब की जगह टांग देंगे एक टुकड़ा चाँद।
दिग्विजय आया गया पुल कभी खड़ा नहीं हुआ।
पुल बनाने के लिए इकट्ठा की गयी ग़िट्टी-मुरम पे बैठ बैठे, मिट्टी के ढेर के एक हिस्से को तब तक खोदते रहते थे जब तक दोनो दिशा से आते हुए मिट्टी में लथपथ हाथ सुरंग के भीतर एक दूसरे को ना छू लें! सुरंग के भीतर अंगूठों के युद्ध होते थे और उप्पर खुद-ब-खुद बन जाता था एक पुल। जिसपर हमेशा कूद कर हमला किया जाता था! कई बार तो खुदायी में खोयी हुयी चप्पलें भी मिली, ऐसा लगता था हज़ारों लाखों साल पहले धरती की गहरायी में समा गए जीवाश्म ढूँढ निकाले हों!
घर के सामने पुल का निर्माण जारी था हमेशा से, वो पुल्ल बस बने ही जा रहा था, शायद उसे बना ही इसलिए रहा थे की वो बस बनते ही जाए, ख़त्म ना हो कभी। मैं इतना छोटा था कि मेरे मोहल्ले का ये पुल मुझे गीज़ा के पिरामिड से भी ज़्यादा रहस्यमयी और ज़्यादा जादुई लगता था, शायद ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि वो मेरे घर के ठीक सामने से ही शुरू होता था जबकि पिरामिड हज़ारों मील दूर था । पुल जैसे मेरे घर का ही सदस्य था, वहीं पिरामिड एक बहुत दूर की कठिन कल्पना ! रेलिंग पे पड़ोसी कथड़ियाँ सुखाते थे, लोग दारू पी कर उसकी फूटपाथ पे सो जाते थे।
मैं कभी भी उस पुल पर चढ़कर नीचे झांक सकता था, पर तो पिरामिड पर चढ़ सकता था ना ही नीचे झांक सकता था।
पिरामिड मिस्र की आदिम सभ्यता का प्रमाण थे, पर पुल की रेलिंग से नीचे झांकते हुए चलो तो लगता था की समय में आगे पीछे पीछे कहीं भी जा सकते हैं और नीचे झांकते हुए चलों तो लगता है की सभ्यताऐं बतलते जा रही हैं । रविवार को लगने वाल सब्ज़ी बजार, मंगलवार का बैल बजार दूसरी ओर पास की नदी से पकड़ी हुयी दो दो फ़ीट की मछली के शव रखे रहते थे, उनकी खुली हुयी बड़ी आँखे देखकर ऐसा लगता था की विस्मायदी-बोधक चिन्ह की जगह सिर्फ़ मछली की आँख बनाना चाहिए ! बड़ा गोल “o”
जहाँ पुल के नीचे से पटरियाँ निकलती थी, नहीं! पटरियाँ भी पुल्ल के जैसे वहीं लेटे रहते थी, उप्पर से हम गुजरते थे। पटरी और पुल के बीच जो जगह थी उस से जब कभी मालगाड़ी निकला करती थी तो ढूँड के पत्थर फेंका करते थे ख़ाली बोगियों में! कुछ ट्रेनों पर उप्पर से थूकते भी थे और किसका थूक ट्रेन की छत तक पहुँचता था वो तो भैय्या राजा!
तेज़ गूंजती आवाज़ बहुत देर तक उस पुल पे रहती, ट्रेन पत्थर के साथ हमसे बहुत दूर चले जाती थी। शाम के वक्त आती रेल गाड़ी के पीले प्रकाश में उड़ते कीड़े और तेज़ हॉर्न, अंडर ब्रिज का भागता अंधेरा और हमारे एक लय में चिल्लाया हुआ “ टाटा रेल गाड़ी” , रेलगाड़ी अपने हॉर्न के साथ हमारा “टाटा” बहुत दूर ले जाती थी, मद्रास तक! या बम्बई!
बस अंधेरे में अकेले वहाँ नहीं जाते थे, जैसे पिरामिड के अंदर मारे हुए लोगों को ममी बनकर रखा गया था हमने सुना था की वैसे ही बच्चों को अगवा कर उनकी बलि देकर पुल के नीचे गाढ़ दिया गया था। सोच कर सिहर जाते थे कि कहीं रेत के टीले में दबी जो चप्पलें मिली थी वो इन्ही बच्चों की तो नहीं थी।
पुल अनगिनत पहलियाँ छुपाए हर दिन के यथार्थ में छुपी एक कल्पना जैसा लगता था, है और रहेगा!
जो “था, है और रहेगा” के इधर उधर बिखरी स्मृतियों और सम्भावनाओं के बीच मैं हमेशा कुछ खोजता रहूँगा!
अशोक वाजपेयी लिखते हैं कि “जो लोग कविता लिखते हैं वो कभी कभी थोड़ा सा समय भी लिख जाते हैं ! पर केदारनाथ सिंह की यह कविता “माँझी का पुल” पढ़ कर लगता है कि वो मेरा जिया हुआ समय लिख गए हैं जिसे मैं असंख्य लोगों के साथ साझा करता हूँ ।
माँझी का पुल
मेरे गाँव से दिखाई पड़ता है
माँझी का पुल
मैने पहली बार
स्कूल से लौटते हुए
उसकी लाल-लाल ऊँची मेहराबें देखी थीं
यह सर्दियों के शुरू के दिन थे
जब पूरब के आसमान में
सारसों के झुंड की तरह डैने पसारे हुए
धीरे-धीरे उड़ता है माँझी का पुल
वह कब बना था
कोई नहीं जानता
किसने बनाया था माँझी का पुल
यह सवाल मेरी बस्ती के लोगों को
अब भी परेशान करता है
‘तुम्हारे जन्म से पहले’-
कहती थीं दादी
‘जब दिन में रात हुई थी
उससे भी पहले’-
कहता है गाँव का बूढ़ा चौकीदार
क्या यह सच नहीं है कि एक सुबह इसी तरह
किनारे की रेती पर
पड़ा हुआ मिला था माँझी का पुल
बंसी मल्लाह की आँखें पूछती हैं!
लालमोहर हल चलाता है
और ऐन उसी वक्त
जब उसे खैनी की जरूरत महसूस होती है
बैलों के सींगों के बीच से दिख जाता है
माँझी का पुल
झपसी की भेड़ें-
उसने बारहा देखा है-
जब चरते-चरते थक जाती हैं
तो मुँह उठाकर
उस तरफ देखने लगती हैं
जिधर माँझी का पुल है
माँझी के पुल में कितने पाए हैं?
उन्नीस-कहता है जगदीश
बीस-सनझू हज्जाम का खयाल है
कई बार यह संख्या तेईस या चौबीस तक चली जाती है
क्या दिन के पाए
रात में कम हो जाते हैं?
क्या सुबह-सुबह बढ़ जाते हैं
माँझी के पुल के पाए?
माँझी के पुल में कितनी ईंटें हैं?
कितने अरब बालू के कण?
कितने खच्चर
कितनी बैलगाड़ियाँ
कितनी आँखें
कितने हाथ चुन दिए गए हैं माँझी के पुल में
मेरी बस्ती के लोगों के पास कोई हिसाब नहीं है
सचाई यह है
मेरी बस्ती के लोग सिर्फ इतना जानते हैं
दोपहर की धूप में
जब किसी के पास कोई काम नहीं होता
तो पके हुए ज्वार के खेत की तरह लगता है
माँझी का पुल
मगर पुल क्या होता है?
आदमी को अपनी तरफ क्यों खींचता है पुल?
ऐसा क्यों होता है कि रात की आखिरी गाड़ी
जब माँझी के पुल की पटरियों पर चढ़ती हैं
तो अपनी गहरी नींद में भी
मेरी बस्ती का हर आदमी हिलने लगता है?
एक गहरी बेचैनी के बाद
मैंने कई बार सोचा है माँझी के पुल में
कहाँ है माँझी?
कहाँ है उसकी नाव?
क्या तुम ठीक उसी जगह ऊँगली रख सकते हो
जहाँ एक पुल में छिपी रहती हैं नाव?
मछलियाँ अपनी भाषा में
क्या कहती हैं पुल को?
सूँस और घड़ियाल क्या सोचते हैं?
कछुओं को कैसा लगता है पुल
जब वे दोपहर बात की रेती पर
अपनी पीठ फैलाकर
उसकी मेहराबें सेंकते हैं?
मैं जानता हूँ मेरी बस्ती के लोगों के लिए यह कितना बड़ा आश्वासन है
कि वहाँ पूरब के आसमान में
हर आदमी के बचपन के बहुत पहले से
चुपचाप टँगा हुआ है माँझी का पुल
मैं सोचता हूँ
और सोचकर काँपने लगता हूँ
उन्हें कैसा लगेगा अगर एक दिन अचानक यह पता चले
वहाँ नहीं है माँझी का पुल!
मैं खुद से पूछता हूँ
कौन बड़ा है
वह जो नदी पर खड़ा है माँझी का पुल
या वह जो टँगा है लोगों के अंदर?
क्या आप विश्वास करेंगे
मेरी बस्ती के लोग अक्सर पूछते हैं
माँझी के पुल से कितनी दूर है
माँझी का पुल?
photographs by Akshat Pathak
poem by Kedarnath Singh
मिट्टी में खोदी है सुरंग और पिरामिड👌
उत्कृष्ट रचनाओं में से एक.. सारी स्मृतियाँ जिवंत हो उठीं.. बहुत उम्दा